राजस्थानी फिल्म ’भोभर‘, मथुरा के रंगकर्मियों की निर्मित ’कैद‘ दिखाई
उदयपुर। दूसरे उदयपुर फिल्मोत्सव के तीसरे और आखिरी दिन रविवार को तीन फीचर फिल्मों और चार दस्तावेजी फिल्मों ने दर्शकों को नए सिनेमा के स्वाद से परिचय कराया। आज दिखाई गई फीचर फिल्म ’भोभर‘ और ’कैद‘ संवेदनशील मुद्दों को बहुत सहजता के साथ उठाती है वहीं कम बजट में फिल्म बनाकर करोड़ों के बजट वाली बालीबुड की फिल्में के बरक्स एक नया सिनेमा भी हमारे सामने लाती हैं।
फिल्मोत्सव के तीसरे दिन की शुरूआत राजस्थान की फीचर फिल्म ’भोभर‘ से हुई। इसका निर्माण पेशे से इंजीनियर गजेन्द्र श्रोत्रिय ने अपने मित्र लेखक रामकुमार सिंह की कहानी ’ शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते‘ पर बनाई है। यह फिल्म काफी कम बजट में बनी है। भोभर का अर्थ होता है दबी हुई आग। यह फिल्म रावत नाम के एक किसान की कहानी है जो शराब के नशे में घर-परिवार का दायित्व भूल जाता है। उसे अपनी पत्नी पर भी गैरमर्द से सम्बन्ध होने का शक है। इसी घुटन में वह तिल-तिल कर मरता है। आखिर में जब उसके जीवन की चंद सांसें बची हैं, उसे अपनी गलती का अहसास होता है। फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने फिल्म के निर्देशक गजेन्द्र श्रोत्रिय और लेखक रामकुमार सिंह से बातचीत की।
एक और फीचर फिल्म ’कैद‘ मथुरा के वरिष्ठ रंगकर्मी मोहम्मद गनी ने बनाई है। यह फिल्म साहित्यकार ज्ञानप्रकाश विवेक की इसी नाम से बनी कहानी पर बनी है। यह फिल्म संजू नाम के एक बच्चे की कहानी है जिसकी शरारतें और उत्साह स्कूल के नीरस वातावरण व शिक्षकों की नासमझी के कारण अवसाद में बदल जाती है। उसके अवसाद का कारण जानने के बजाय अंधविश्वास में जकड़ा उसका परिवार व अन्य लोगों संजू को विक्षिप्त करार देकर एक कमरे में कैद कर देते हैं। उस मासूम के मनोभावों को एक युवा शिक्षक ठीक से समझता है और उसे कैद से मुक्त कराता है। इस दौरान उसे समाज में अंधविश्वास, रूढ़ियों, अवैज्ञानिकता से टकराना पड़ता है।
तीसरी फीचर फिल्म रजत कपूर द्वारा निर्देशित ’आंखों-देखी‘ उस परिवार के बारे में है जिसके सदस्यों के मन में नए समय के साथ दौड़ लगाने की तमन्ना तो है लेकिन उनकी आय बहुत सीमित है। वह पुश्तैनी मकान की संरचना को बदलना चाहते हैं, उससे बाहर निकलना चाहते हैं लेकिन आर्थिक संसाधन के अभाव में वे उसी घर को नए समय के हिसाब से अनुकूलित करते हैं। इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद इसके गीतकार वरूण ग्रोवर से दर्शकों ने बातचीत की।
आज दिखाई गई दस्तावेजी फिल्म ’इज्जतनगरी की असभ्य बेटियां‘ लव जिहाद का हौव्वा खड़ा कर रहे तथाकथित संस्कृति रक्षकों के लिए एक जवाब है। नकुल साहनी इस फिल्म के जरिए हरियाणा के खाप पंचायतों द्वारा प्रेम और अपनी मर्जी से शादी पर लगाए गए प्रतिबंध और प्रतिबंध को तोड़ने वालों पर की जा रही बर्बरता को सामने लाते है और साथ ही इसके खिलाफ लड़ रही लड़कियों के संघर्ष को भी सामने लाते हैं। फिल्म के प्रदर्शन के बाद इसके निर्देशक नकुल साहनी ने दर्शकों द्वारा पूछे गए सवालों का जवाब दिया।
इफत फातिमा की दस्तावेजी फिल्म ’व्हेअर हैव यू हिडन माय न्यू क्रिसेन्ट‘ कश्मीर में लापता लोगों को न्याय दिलाने के लिए लड़ रहीं मुगलमासी के अनवरत संघर्ष को समर्पित है। आज दो छोटी दस्तावेजी फिल्में ’इन सिटी लाइट्स‘ और ’अ घेटो फार दी डेड‘ भी दिखाई गई। सौरभ व्यास की ’ इन सिटी लाइट्स‘ अहमदाबाद के बुजुर्ग रंगरेज मोहम्मद हुसैन की कहानी है तो शंभूलाल खटीक की ’अ घेटो फार द डेड‘ जिंदगी भर भेदभाव और अन्याय झेलने वाले दुखी की कहानी है जिसको मौत के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती। दर्शकों को वरूण ग्रोवर द्वारा प्रस्तुत ’स्टैण्ड अप कामेडी‘ भी बहुत पंसद आई। आज आखिरी दिन क्रांतिकारी कवि नबारूण भट्टाचार्च की याद में उनकी प्रसिद्ध कविता ’ यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश‘ व अन्य कविताओं का पाठ किया गया। वर्ष 2015 में फिर मिलने के वादे के साथ दूसरे फिल्म उत्सव का समापन हुआ।