आचार्य महाश्रमण साहित्य समीक्षा संगोष्ठी में तीन कुलपतियों ने व्यक्त किए विचार
उदयपुर। तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमण का लिखित साहित्य न सिर्फ उन्हें साहित्यकार बनाता है बल्कि एक प्रेरक और पथ प्रदर्शक के रूप में भी दिखाता है। 800 साधु-साध्वियों का नेतृत्व कर 15 लाख से अधिक अनुयायियों के साथ वे समग्र समाज को प्रेरणा दे रहे हैं। अब तक करीब 25 हजार किलोमीटर की पदयात्रा कर चुके आचार्य श्री महाश्रमण का साहित्य सृजन कार्य निरंतर जारी है।
ये विचार श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा और सन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के साझे में रविवार को कॉलेज परिसर में आचार्य महाश्रमण साहित्य समीक्षा विषयक संगोष्ठी में विभिन्न वक्ताओं ने व्यक्त किए। मुख्य अतिथि सुखाड़िया विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आईवी त्रिवेदी तथा विशिष्ट अतिथि राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत व एफएमएस के पूर्व निदेशक प्रो. पीके जैन थे। अध्यक्षता पेसिफिक यूनिवर्सिटी के प्रो. प्रेसीडेंट प्रो. बीपी शर्मा ने की।
मुनि राकेश कुमार ने कहा कि संतों-साहित्यकारों की वाणी अमर है। इससे उनके अनुभव-तपस्या जुड़ी होती है। आचार्य श्री महाश्रमण ने जो भी लिखा, उससे पहले उसे अपने जीवन में उतारा और जीया। बौद्धिक विकास की कमी नहीं है। शरीर के सारे रसायनों पर आपकी सोच का असर होता है। उन्होंने बताया कि इन्द्रिय संयम आवश्यक है। बच्चों को आरंभ से ही अनासक्ति का अभ्यास कराएं। मन का रिमोट हमारे वश में होना चाहिए, किसी पदार्थ या परिस्थिति के नहीं। हर तरह की प्रतिक्रिया से बचें। देखने-सुनने या कहने में भी प्रतिक्रिया न करें। देखते हुए भी न देखने की साधना करें।
मुनि हर्षलाल ने कहा कि आचार्य प्रवर साधक हैं। साधना ही उनके जीवन का लक्ष्य है। इन पुस्तकों को पढ़ें और यदि हम अपने जीवन में कुछ उतार पाए तो भी बड़ी बात है। ये सिर्फ लिखा हुआ साहित्य नहीं है बल्कि अपने जीवन में अभ्यास में लाने योग्य है।
मुनि सुधाकर ने कहा कि संस्कृति का संवर्धन करना है, उसका अस्तित्व बचाना है तो संत-साहित्यकारों का मंथन-चिंतन जरूरी है। अपनी लेखनी से साहित्य सृजन कर साहित्यकार माने जाते हैं। गत वर्ष जब लाल किले की प्राचीर से उन्होंने अहिंसा यात्रा की शुरूआत की थी तो यात्रा के तीन उद्देश्य नैतिकता, साम्प्रदायिक सौहार्द और नशामुक्ति को साथ लेकर चले थे। आज देश में नैतिकता के दोहरे मापदण्ड जन्म ले रहे हैं। अनीति से कमाओ, दान-पुण्य करो तो पाप मिट जाएंगे। यह नैतिकता के विकास को अवरुद्ध करता है। परिवार-संगठन के लिए चार एम मेन पावर, मनी पावर, माइंड पावर और सबसे आवश्यक मोरल पावर जरूरी है।
मुनि दीप कुमार ने कहा कि अहिंसा यात्रा का उद्देश्य नशामुक्ति इसलिए था कि आज नशा विद्यालय, महाविद्यालयों तक पहुंच गया है। नशा नाश का दूसरा नाम है। अगर शराब को मिट्टी में नहीं मिलाया तो कभी न कभी शराब आपको मिट्टी में मिला देगी।
मुनि यशवंत कुमार ने कहा कि सम्प्रदाय के आचार्य होकर भी वे सम्प्रदाय से इतर बात करते हैं। यही कारण है कि जहां जाते हैं, अपनी छाप छोड़ जाते हैं। जन जागरूकता के साथ मानव मात्र के कल्याण की बात करते हैं।
सुविवि के कुलपति प्रो. आईवी त्रिवेदी ने कहा कि किताब से हम क्या प्राप्त कर सकते हैं, उस पर हम चर्चा कर सकते हैं न कि आचार्य प्रवर के लिखे साहित्य पर। आज यहां आकर एक प्रण जरूर किया कि आचार्य प्रवर की किताबों का नियमित स्वाध्याय करुंगा। सुखी कैसे बनें विषयक किताब में 41 अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में इतने सूत्र दिए गए हैं कि अगर एक भी सूत्र को जीवन में उतार लें तो जीवन सफल है।
राजस्थान विद्यापीठ के कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत ने कहा कि आध्यात्मिक बुनियाद के बिना राष्ट्रीयता का निर्माण असंभव है। संपन्न बनो विषयक किताब आचार्य के अक्षरों का ऐसा संकलन है जैसे पढ़कर समस्त जीवन को इसमें लिख दिया। उनके प्रवचनों से हर व्यक्ति लाभान्वित होता है। जो बाह्य चीजों से अनासक्त हो, वही व्यक्ति सफल है। साधक सभी कामों को त्याग देता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। प्रज्ञ-वीतराग से कामनाओं को त्यागने का संदेश मिलता है। यह किताब आचार्य के विराट व्यक्तित्व को दर्शाती है।
पेसिफिक यूनिवर्सिटी के प्रो प्रेसीडेंट प्रो. बीपी शर्मा ने कहा कि आचार्य महाश्रमण की किताब मैंने पढ़ी है। ये दुख से विमुक्त कर व्यक्ति को सुख के मार्ग पर ले जाने का कार्य करती हैं। नेपाल में उनके दर्शनों के दौरान भी ऐसा लगा कि उनके दर्शन मात्र से व्यक्ति एकाग्रचित्त और उत्साही बन जाता है। यह उनकी साधना का फलित है जिसके स्पंदन हमें अनुभूत होते हैं। किसी भी एक सूत्र को भी हम जीवन में उतार लें तो सभी दुखों की निवृत्ति हो जाएगी। अनावेश, अनासक्ति, अनाग्रह को अपनाना चाहिए।
एफएमएस के पूर्व निदेशक प्रो. पीके जैन ने कहा कि उंचाई पर पहुंचते ही शिष्य सब कुछ भूल जाता है। वह अच्छा गुरु तो बनना चाहता है लेकिन अच्छा शिष्य नहीं। आचार्य ने उनकी पुस्तक में लिखा है कि जीना सीखें। मैं भी जीवन जीना सीखना चाहता हूं। यह लिखकर वे अपनी अपूर्णता को सहज स्वीकार कर रहे हैं। साहित्य दो प्रकार का होता है। एक जो एक प्रतिशत जनता के लिए लिखा जाता है जिसे लिटरेचर फेस्ट में पढ़ा जाता है और दूसरा 99 प्रतिशत जो आम जनता के लिए लिखा जाता है और उसे सब जगह पढ़ा जाता है। ढाई हजार वर्ष से भगवान महावीरक का वाचन कर रहे हैं लेकिन सीखने की अपनी वर्जनाएं नहीं तोड़ पा रहे हैं। उम्र बढ़ने के साथ ज्ञान का विकास और सरलता का नाश होता है। सोच का परिग्रह सर्वाधिक नुकसान कर रहा हूं। मैंने जो कर लिया, वही सच है, यह गलत है।
तेरापंथी सभाध्यक्ष राजकुमार फत्तावत ने कहा कि आचार्य महाप्रज्ञ साहित्य का अपूर्व भंडार थे। उनकी इस परंपरा को आचार्य श्री महाश्रमण आगे बढ़ा रहे हैं। निरंतर विचरण करते हुए भी अध्ययन-अध्यापन करने के बाद साहित्य लेखन का काम अनवरत है। नेपाल से चातुर्मास संपन्न कर इन दिनों वे बिहार में हैं।
कार्यक्रम के आरंभ में मंगलाचरण सोनल सिंघवी, शशि चव्हाण एवं समूह ने किया। कार्यक्रम का सफल संचालन सन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के निदेशक अरूण माण्डोत ने किया। आभार तेरापंथी सभा के मंत्री सूर्यप्रकाश मेहता ने व्यक्त किया।