दीपावली देश के तमाम हिस्सों में सदियों से उमंग और उल्लास के साथ मनायी जाती रही है। विभिन्न जाति-उपजातियों, सम्प्रदायों, वनवासियों, गिरिवासियों से लेकर भारतवर्ष के बीहड़ वनीय कोनों-कंदराओं तक दीवाली अनेक लोक परंपराओं, सामाजिक अनुष्ठानों और रोचक प्रथाओं के साथ मनायी जाती है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात की सरहदी संस्कृति की गूंज के साथ बहने वाली माही नदी और इसकी शाखा-प्रशाखाओं के तटों पर आदिकाल से निवास कर रही जनजातियों में दीपावली कई पुरातन प्रथाओं और लोक रस्मों के साथ मनायी जाती है।
सामाजिक उल्लास का पर्व : सामाजिक, सांस्कृतिक और उत्सवी परम्पराओं की त्रिवेणी बहा रहे वागड़ अंचल बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिले आदिवासी बहुल हैं जहाँ दीवाली की धूम एक-दो दिन में ही नहीं सिमट जाती बल्कि पखवाड़े भर तक मौज-मस्ती का दरिया उमड़ाती-उफनाती हुई रोशनी पर्व का उल्लास बिखेरती है।
प्रकृति के बीच रमे हुए आदिवासियों के लिए दीपावली सबसे बड़ा उल्लास पर्व है जब मेल-मिलाप और सामूहिक उल्लास भरी जीवंत संस्कृति हर कहीं पूरे यौवन के साथ रूपायित होती है। आदिवासी क्षेत्रों में दीपावली की ढेरों रोचक प्रथाएं और पुरातन परम्पराएं आज भी जीवंत हैं वहीं आधुनिक सरोकार भी इसमें जुड़कर दीपावली के सांस्कृतिक वैभव को बहुगुणित करते प्रतीत होते हैं।
मूक पशु भी मनाते हैं दीवाली : खेती-बाड़ी और पशुपालन पर निर्भर इस अंचल के बहुसंख्य ग्रामीणों के लिए पशु ही उनका धन हैं जिनके जरिये वे धन-धान्य पाकर खुशहाली का आनन्द ले रहे हैं। यही कारण है कि आदिवासी अंचल भर में न सिर्फ मानव समुदाय बल्कि पशु और प्रकृति भी दीपावली के आनन्द में सरोबार रहते हैं।
पशुओं से जाना जाता है भविष्य : पशुपालक दीपावली पर अपने पशुओं को नहलाते धुलाते हैं व रमजी, रंग आदि से उनके सिंग-खुरों, देह का सौन्दर्य निखारते हैं। कई गांवों में पूरे गांव भर की मौजूदगी में पशु दौड़ होती है तथा इसके आधार पर भविष्य के अनुमान लगाए जाते हैं। इस दिन पशुओं का भी मुँह मीठा करवाया जाता है। मोटा टाण्डा में गायों को ‘हुरड़े’ चढ़ाया जाता है इस आधार पर भी भविष्य निकाला जाता है। वनांचल में रूप चौदस को पशुओं का भी श्रृंगार किया जाता है।
दीवाली आणा का आनन्द : दक्षिणांचल में ‘दीवाली आणा’ का सामाजिक अनुष्ठान दीपावली के दिनों में अपने पारम्परिक रसों की वृष्टि करता है। नव दम्पत्तियों के लिए शादी के बाद की दीवाली पर दीवाली आणा का रिवाज है। इसमें घर-परिवार के लोग व नाते-रिश्तेदार नव वर-वधू के साथ मिलकर दीवाली सेलिब्रेट करते हैं। इस दौरान पकवान बनाए जाते हैं तथा वस्त्रादि उपहार में दिए जाते हैं।
मेरिया देता है रोशनी : दीपावली पर रोशनी आवाह्न के रूप में मेरिया का दिग्दर्शन होता है। गन्ने के डंठल पर वस्त्र, रूई, मिट्टी आदि से पाँच या इससे अधिक बत्तियों वाली मशाल बनायी जाती है। इसे तेल में भिगोकर मशाल जलायी जाती है। इस मशाल को ही स्थानीय बोली में ‘‘मेरिया’’ कहा जाता है। कहीं संध्या के बाद तो कहीं बड़े सवेरे मेरिया प्रदर्शित किया जाता है। घर के बड़े-बुजुर्ग मेरिया बना व प्रज्वलित कर अपने बच्चों के हाथों थमाते हैं।
पहले पहल भगवान को मेरिया दिखाया जाता है। इस समय ‘‘आल दीवारी, काल दीवारी, पमने दाड़े मेरीयू… राजा रामन्द्रजी नू मेरीयू’ आदि परम्परागत लोक वाक्यों का उच्चारण किया जाता है। नवदम्पति भी मेरिया दिखाते हैं जिस पर सगे-संबंधी व घर वाले तेल पूरते हैं। यह तेल पारिवारिक व सामुदायिक खुशहाली के साथ उजाले के विस्तार का प्रतीक है।
आम तौर पर दीपावली त्योहार की तैयारियां पखवाड़े भर पहले से शुरू हो जाती हैं मगर उत्सवी उल्लास का आगाज़ हो जाता है धनतेरस से। धनतेरस पर सूर्यास्त के बाद घरों, स्थानकों, मंदिरों आदि पर दीप श्रृंखलाएं सजायी जाती हैं। इसके साथ ही ग्राम्यांचलों में शाम के नारियल या धूप का हवन किया जाता है। धनतेरस व रूप चौदस के दिन अनाज व रुपये-पैसे किसी को नहीं दिए जाते। मान्यता है कि इस दिन रुपया-पैसा व अनाज देने से साल भर देने में ही जाता है।
रूप चतुर्दशी के साथ ही दीपावली को भी शाम को दीपक जलाते हैं। इस रात घर के अंदर-बाहर हर कहीं, हर कक्ष में दीपक जलाते हैं। रात में दीपावली की पूजा-अर्चना कर लक्ष्मी रिझाने का अनुष्ठान होता है। दीपावली की पूरी रात दीपक जलाने को कहा जाता है। मान्यता है कि दीपावली की रात लक्ष्मी घर-घर घूमती है और जहाँ अंधेरा होता है वहाँ वह नहीं जाती।
यों भगाते हैं दरिद्रता : अगले दिन प्रतिपदा को भोर में दरिद्रता निकाली जाती है। इसमें ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सफाई करते हैं तथा एक नई मटकी में सारा कचरा भरकर बिना बोले घर से दूर रख आते हैं। इसे ‘अरे काड़ना’ कहते हैं। दीपावली का दूसरा दिन मेल मिलाप और सौहार्द भावनाओं को प्रगाढ़ता देने का होता है। कई जगह यह रामा-शामी और कई स्थानों पर जुहार सा- कहा जाता है। यह पूरा दिन घर-घर जाकर रामा-शामी (पारस्परिक अभिवादन) को समर्पित होता है। कई स्थानों पर घर आए मेहमानों को गुड़ नारियल खिलाया जाता है। इसके बाद हथकढ़ी शराब का रिवाज़ भी कहीं-कहीं है।
मृतकों को मिलती है रोशनी : आदिवासी क्षेत्रों में दीपावली सिर्फ वर्तमान पीढ़ी को ही उल्लास नहीं देती बल्कि मृत परिजनों के मोक्ष का द्वार भी खोलती है। इसके लिए मृत परिजनों के नाम ‘दीवड़ा’ दीपदान किया जाता है। दीपावली और आतिशबाजी का संबंध पुराने जमाने से चला आ रहा है। पहले यह आतिशबाजी शहर कस्बों तक सीमित थी लेकिन अब गाँवों तक इसकी पैठ हो चली है। डूंगरपुर जिले के सकानी मे मेरिया लक्ष्य भेदन, घण्टाला और वनाला के गुर्जरों की दीवाली रस्में, अबापुरा के हाला देव का मेला, दीवाली नृत्य वोरी की धूम हो या छींच के अन्नपूर्णा धाम में अन्नकूट की महक, हर कहीं दीपावली के जाने कितने ही रंग और रस बरसते रहते हैं।
योगिता आचार्य