विख्यात आलोचक अशोक वाजपेयी उदयपुर में
Udaipur. आधुनिकता यूरोपीय सभ्यता अथवा अंग्रेजों की देन नहीं है। आज हम जिनको आधुनिकता के लक्षण मानते हैं वे सदियों से भारतीय परम्परा में मौजूद है। विख्यात कवि, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने ये विचार मुनि जिनविजय स्मृति व्याख्यान में व्यक्त किए।
इसका आयोजन मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और प्राकृत भारती, जयपुर ने संयुक्त रूप से किया। हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. माधव हाड़ा ने बताया कि ’’ प्राचीनता की आधुनिकता विषयक व्याख्यान में वाजपेयी ने भारतीय संस्कृति के बहुलतावादी स्वरूप को रेखांकित किया। वाजपेयी ने कहा कि प्रश्नाकुलता को आधुनिकता का सर्व प्रमुख लक्षण बताया जाता है जो भारतीय संस्कृति में प्रारंभ से ही व्याप्त है। उन्होंने ऋग्वेद के नासदीय सूत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि इसमें संशय और प्रश्न दोनों की उपस्थिति आधुनिकता का सूचक है। भारत के सभी धर्म प्राचीन धर्म हैं और बुद्ध और महावीर स्वामी ने तो अपने अनुभूत सत्य के भयमुक्त जीवन जीने का संदेश दिया है। उन्होंने तैंतीस करोड़ देवताओं का संदर्भ बताते हुए कहा कि हमारे यहां जनंसख्या से अधिक देवताओं की संख्या रही है। यह हमारे विस्तार और सामाजिकता का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि भारत विश्व में सर्वाधिक भाषाओं वाला देश है। इसके बाद भी हमारी आतंरिक एकता विश्वभर के लिए एक संदेश है। भाषा, साहित्य, स्थापत्य, गणित आदि में भारत ने ज्ञान के चरम को छू लिया था। हमारे ज्ञानोत्पादन का चरम है – शून्य की खोज। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान आधारित विश्व में शून्य के महत्व को स्वीकार किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि प्रश्नानुकूलता, ज्ञानोत्पादन, निरन्तरता और व्यापकता आदि सभी आधुनिकता के लक्षण हमारी सभ्यता में सनातन काल से है।
यूरोपीय आधुनिकता और सभ्यता के संदर्भ में उन्होंने कहा कि उनका मध्ययुग अंधकार का युग रहा है जबकि भारतीय सभ्यता में वह दौर ज्ञान के प्रकाश से आलोकित था। हमारा मध्य युग जगमगाता हुआ मध्ययुग रहा है। हमारे महाकाव्य मृत महाकाव्य नहीं हैं, उनमें निरंतरता है। प्रतिदिन रामायण और महाभारत पर आधारित करीब 5 हजार प्रस्तुतियां प्रतिदिन होती हैं। वाजपेयी ने कहा कि प्राचीनता के लक्षण गिनाने का अर्थ उसके महात्म्य को बताना नहीं था बल्कि आधुनिकता की सीमाओं का बताना है।
विश्वविद्यालय के मानविकी संकाय के जर्नल ’कन्सर्न’ का लोकार्पण पर भी किया गया। मानविकी संकाय के अधिष्ठाता प्रो. शरद श्रीवास्तव ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि यह जर्नल विश्वविद्यालय के वरिष्ठ साथियों की ज्ञान साधना का प्रतिबिम्ब है। अध्यक्षीय उद्बोधन में कुलपति ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की सद्भावना की अपेक्षा आधुनिकता के स्वार्थ को समाज के लिए अहितकर बताया। कार्यक्रम में प्राकृत भारती अकादमी जयपुर से आए डॉ. राजेंद्र रत्नेश ने मुनि जिन विजय का परिचय दिया और प्राचीन ज्ञान और साहित्य के संरक्षण में उनके योगदान को अविस्मरणीय बताया। उन्होंने विश्वविद्यालय के सहयोग से मुनि जिनविजय की जीवनी प्रकाशित करने का प्रस्ताव भी रखा। अंत में विभाग के डॉ. नवीन नंदवाना ने धन्यवाद ज्ञापित किया। संचालन डॉ. नीतू परिहार ने किया।