अन्ना की जीत, लोकतंत्र की विजय हुई और सबसे बड़ी बात कि अन्ना के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित सभी लोगों को खुशी मिली कि अन्ना ने अनशन तोड़ने का फैसला कर लिया, लेकिन यह जीत कैसे सभी मायनों में पूरी है. कैसे मान लें कि स्थाई समिति में इसे यूँ का यूँ स्वीकार कर लिया जायेगा. अभी तो पेश प्रस्ताव पर संसद में सैद्धांतिक सहमति हुई है. उस पर मतदान तो हुआ नहीं कि हम उसे पूरी जीत मान लें. अभी तो जीत बाकी है. सरकारी पेचीदगियों से कौन वाकिफ नहीं है और जब मुद्दा सरकार का हो तो वो पेचीदगियां और भी बढ़ जाती हैं. हालांकि अन्ना खुद इस जीत को पूरी नहीं मान रहे हैं. वे खुद भी कह रहे हैं कि जीत अभी आधी है और आधी जीत अभी बाकी है लेकिन समर्थकों का हुजूम तो ऐसा उमड़ा कि बस जीत गए. यहाँ तक कि जितने इलेक्ट्रोनिक चैनल, उतनी बातें. एक ने कहा प्रस्ताव पेश, दूसरा बता रहा था कि प्रस्ताव पारित, तीसरे का कहना था कि प्रस्ताव लेकर अन्ना के पास गए. मतलब सभी मिलकर देश कि जनता को गुमराह करने में लगे थे या उनके संवाददाताओं की सक्रियता कम रही, पता नहीं. उधर सरकार का दिमाग यह पता लगाने में थक गया कि इस पूरे आंदोलन के पीछे किसका हाथ रहा. टीम अन्ना को अलग करने के सारे हथकंडे अपना लिए, स्वामी अग्निवेश ने भी अपनी आग उगल दी, लेकिन आखिरकार सरकार को मानना पड़ा. उधर आंदोलन के जैसे-जैसे दिन निकले, देश कि आम जनता ने इन सभी नेताओं को भी देख लिया. वो मायावती, मुलायम सिंह यादव जो ७ दिन पहले अन्ना के समर्थन में दौड पड़े थे, कांग्रेस ने इन दोनों को ऐसा क्या डंडा दिखाया कि दोनों अन्ना के धुर विरोधी हो गए. भाजपा को आखिरकार खुलकर सामने आना पड़ा. जब संसद में शनिवार को प्रणव मुखर्जी के पेश प्रस्ताव पर चर्चा की गई तो सबसे पहले भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने खुलकर समर्थन दिया. फिर कांग्रेस को भी मजबूरन समर्थन करना पड़ा और बाद में छोटे-मोटे दल सभी समर्थन में आ गए. एक बात और इस आंदोलन में देखने को मिली कि अन्ना के नाम पर हर कोई श्रेय लेना चाहता था. मीडिया पिपासुओं को पता रहता है कि किस खबर के जरिये मीडिया में प्रसिद्धि मिलेगी सो अपना मूल काम छोड़कर अन्ना के गर्म आंदोलन को समर्थन ही देते रहे ताकि अपना नाम भी छपता रहे. यहाँ तक कि शहर में चातुर्मास कर रहे जैन मुनि भी धर्म की बातें करते-करते अन्ना का समर्थन करते नज़र आये. यही कारण है कि अन्ना की इस अधूरी जीत का लाभ जब अभी से हर कोई ले रहा है तो इसमें क्यूँ संशय हो कि वर्ष २०१४ के चुनाव में ये राजनीतिक दल इसका लाभ नहीं लेंगे.