आज के युग में नाम किसको नहीं चाहिए. हर किसी की यह मंशा रहती है कि बस, कैसे भी हो, मेरा नाम लोगों के सामने आये. लोगों को पता चलना चाहिए कि मैं कौन हूँ. बस, यह ‘मैं’ ही उनको कहाँ से कहाँ ले जाता है. धीरे-धीरे आगे बढ़ने के बजाय हर कोई छलांग मार कर जल्दी ऊपर चढ़ना चाहता है. इस मैं के पीछे भले ही कितना पैसा खर्च हो जाये, चलेगा.. कर देंगे.. अरे साहब, पैसे की माया का क्या कहना, पैसे के पीछे तो दुनिया पागल है. पैसा तो ऐसी चीज़ है कि अगर ठीक-ठाक पैसे मिल जाएँ तो एक ही औरत के साथ बाप-बेटे को भी कजरारे-कजरारे करने में कोई दिक्कत नहीं होती.
व्यक्तिगत नहीं, किसी के भी बारे में सोचें. जिसका नाम समाचार-पत्रों में बहुत आता है, उसने ना जाने कितने पापड बेले होंगे, कितने पैसे अंधाधुंध खर्च किये होंगे, कितनो को खुश किया होगा, तब कहीं जाकर उसे यह मौका मिला और आप कहें कि वो अब नाम भी ना कमाए. आखिर कार उसका भी कोई तो हक है कि नहीं?
संतों-मुनियों को ही लें, टीवी पर जो ज्यादा से ज्यादा दिखे, वही सबसे बड़े. इनका भाषण कभी सुन लें, तो लगेगा कि ये क्या कह रहे हैं. धर्मं के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले ये कथित संत, महंत, मुनि धर्म, न्याय, भगवान के उपदेश की बात तो दूर छोड़ देंगे, उस पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देंगे जिससे अपना नाम प्रमुखता से छपता रहे.
देश में कोई बड़ी घटना हो गई तो उस पर अपनी टिप्पणी कर देंगे ताकि उनके बयान को भी प्रमुखता से प्रकाशन मिल जाये. लेकिन सच है मित्रों ऐसे बिना कर्म किये नाम कमाने वालों की संख्या आज बहुत हो गई है और कर्म करके नाम कमाने वाले हमें ढूंढने पड़ रहे हैं?
क्यूँ? ज़माना ही ऐसा आ गया है. अजब चलन हो गया है, नेताओं को जितनी गाली, उतनी ताली.धर्म की बात कहने आये थे, वो तो कही नहीं गई, अपना नाम छपाना है, सो ऐसी बात कह दी कि समाचार पत्रों को भी नाम तो छापना ही पड़ेगा. चार माह यहाँ तो अगली बार फिर दूसरी जगह. अपना नाम छपाने के लिए बाकायदा पी आर. (जन संपर्क) वाले भी किराये पर रखे जाते हैं जो नाम छपाने की पूरी व्यवस्था करते हैं. समय-समय पर उन तथाकथित पत्रकारों को ‘ओब्लाइज’ भी किया जाता है.
पैसा तो चीज ही ऐसी है कि बेचारे कलम के धनी क्या? स्वास्थ्य रक्षक तक अपनी सरकारी नौकरी छोड़ कर निजी चिकित्सालय में चले गए. सरकार रिक्त पदों पर भर्ती करेगी, तब करेगी लेकिन एक बार तो गरीब मरीज की तो परेशानी हो ही जाती है.
(व्यंग्य)