18 जुलाई शहादत दिवस पर विशेष
झुंझुनू। शूरा निपजे झुन्झुनूं, लिया कफन के साथ।
रण भूमि का लाड़ला, प्राण हथेली हाथ।।
रणबाकुरों की धरती शेखावाटी का झुन्झुनूं जिला राजस्थान में ही नहीं अपितु पूरे देश में शरवीरों, बहादुरों के क्षेत्र में अपना विशिष्ठ स्थान रखता है। पूरे देश में सर्वाधिक सैनिक देने वाले इस जिले की मिट्टी के कण-कण में वीरता टपकाती है।
देश के खातिर स्वयं को उत्सर्ग कर देने की परम्परा यहाँ सदियों पुरानी है। मातृभूमि के लिए हँसते-हँसते मिट जाना यहाँ गर्व की बात है। मिट जाने की परम्परा में नये आयाम स्थापित किये 1947-48 में भारत पाक युद्ध में हवलदार मेजर पीरूसिंह ने जिन्होंने देश हित में स्वयं को कुर्बान कर देश की आजादी की रक्षा की।
झुंझुनूं जिले के बेरी नामक छोटे से गाँव में सन् 1917 में ठाकुर लालसिंह के घर जन्मे पीरूसिंह चार भाईयों में सबसे छोटे थे तथा ’’राजपूताना राईफल्स’’ की छठी बटालियन की ’’डी’’ कम्पनी के हवलदार मेजर थे। 1947 के भारत- पाक विभाजन के बाद जब कश्मीर पर कबालियों ने हमला कर हमारी भूमि का कुछ हिस्सा दबा बैठे तो कश्मीर नरेश ने अपनी रियासत को भारत में विलय की घोषणा कर दी। इस पर भारत सरकर ने अपनी भूमि की रक्षार्थ वहाँ फौजें भेजी। इसी सिलसिले में राजपूताना राईफल्स की छठी बटालियन की ’’डी’’ कम्पनी को भी टिथवाला के दक्षिण में तैनात किया गया। 5 नवम्बर 1947 को हवाई जहाज से वहाँ पहँुचे। श्रीनगर की रक्षा करने के बाद उसी सेक्टर से कबायली हमलावरों को परे खदेडऩे में इस बटालियन ने बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। मई 1948 में छठी राजपूत बटालियन ने उरी और टिथवाल क्षेत्र में झेलम नदी के दक्षिण में पीरखण्डी और लेडीगली जैसी प्रमुख पहाडिय़ों पर कब्जा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन सभी कार्यवाहियों के दौरान पीरूसिंह ने अद्भुत नेतृत्त्व और साहस का परिचय दिया। जुलाई 1948 के दूसरे सप्ताह में जब दुश्मन का दबाव टिथवाल क्षेत्र में बढऩे लगा तो छठी बटालियन को उरी क्षेत्र से टिथवाल क्षेत्र में भेजा गया। टिथवाल क्षेत्र की सुरक्षा का मुख्य केन्द्र दक्षिण में 9 किलोमीटर पर रिछमार गली था जहाँ की सुरक्षा को निरन्तर खतरा बढ़ता जा रहा था।
अत: टिथवाल पहुँचते ही राजपूताना राईफल्स को दारापाड़ी पहाड़ी की बन्नेवाल दारारिज पर से दुश्मन को हटाने का आदेश दिया था। यह स्थान पूर्णत: सुरक्षित था और ऊँची-ऊँची चट्टानों के कारण यहाँ तक पहुँचना कठिन था। जगह तंग होने से काफी कम संख्या में जवानों को यह कार्य सौंपा गया।
18 जुलाई को छठी राईपफल्स ने सुबह हमला किया जिसका नेतृत्त्व पीरूसिंह कर रहे थे। पीरूसिंह की प्लाटून जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, उस पर दुश्मन की दोनों तरफ से लगातार गोलियाँ बरस रही थी। अपनी प्लाटून के आधे से अधिक साथियों के मर जाने पर भी पीरूसिंह ने हिम्मत नहीं हारी। वे लगातार अपने साथियों को आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करते रहे एवं स्वयं अपने प्राणों की परवाह न कर आगे बढ़ते रहे तथा अन्त में उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ मशीन गन से गोले बरसाये जा रहे थे।
उन्होंने अपनी स्टेनगन से दुश्मन के सभी सैनिकों को भून दिया जिससे दुश्मन के गोले बरसने बन्द हो गये। जब पीरूसिंह को यह अहसास हुआ कि उनके सभी साथी मारे गये तो वे अकेले ही आगे बढ़ चले। रक्त से लहू-लुहान पीरूसिंह अपने हथगोलों से दुश्मन का सफाया कर रहे थे। इतने में दुश्मन की एक गोली आकर उनके माथे पर लगी और गिरते- गिरते भी उन्होंने दुश्मन की दो खंदकें नष्ट कर दी।
अपनी जान पर खेलकर पीरूसिंह ने जिस अपूर्व वीरता एवं कर्तव्य परायणता का परिचय दिया, भारतीय सैनिकों के इतिहास का यह एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। पीरूसिंह को इस वीरता पूर्ण कार्य पर भारत सरकार ने मरणोपरान्त ’’परमवीर चक्र’’ प्रदान कर उनकी बहादुर का सम्मान किया। अविवाहित पीरूसिंह की ओर से यह सम्मान उनकी माँ ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से हाथों ग्रहण किया। परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले मेजर पीरूसिंह राजस्थान के पहले व भारत के दूसरे बहादुर सैनिक थे। पीरूसिंह के जीवन से प्रेरणा लेकर राजस्थान का हर बहादुर फौजी के दिल में हरदम यही तमन्ना रहती है कि मातृभूमि के लिए शहीद हो जायें। राजस्थानी के कवि उदयराज उज्जव ने ठीक ही कहा है:-
टिथवाल री घाटियाँ, विकट पहाड़ा जंग।
सेखो कियो अद्भुत समर, रंग पीरूती रंग।।
प्रस्तुति: रमेश सर्राफ धमोरा