फिर बढ़ गई महंगाई.. पेट्रोलियम पदार्थों में बढ़ोतरी यानी सीधे सीधे आम आदमी की जेब पर डाका। विपक्षी पार्टियों को मिल गया मौका.. फिर एक दिन का उनके लिए भारत बंद यानी सब कुछ खत्म और गरीब मजदूर के लिए एक दिन का एडवांस में इंतजाम करना वहीं मध्यमवर्गीय आदमी के लिए एक दिन का आराम..। और अगले दिन से वही सुचारू जिंदगी.. बढ़े हुए दाम देकर चीज खरीदना..।
राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं का मानो प्रिय शगल हो गया है आमजन से खेलना। तुम खेलो लेकिन हमें भी खिलाते रहो..। एक बार आखिर विपक्ष का धर्म तो निभाना ही पड़ेगा विरोध करके। आखिर होना जाना कुछ है नहीं.. अंततोगत्वा पिसना तो आम आदमी को ही है।
आज जरूरत है रिवोल्यूशन की..। क्रांति की..। ऐसी क्रांति जिसकी आग में हर राजनेता झुलसे..। फिर चाहे वो किसी पार्टी का हो..। जो सिर्फ आम आदमी की बात सोचे.. उसे ही आगे लाया जाए..। लेकिन इसकी पहल कौन करे..। इस जमाने में शहर की संस्कृति, आबो-हवा गांवों तक फैल गई है। पहले गांवों में चौपाल हुआ करती थी, जहां प्रतिदिन शाम को गांव के बड़े बुजुर्ग आपस में बतियाते थे और एक-दूसरे की समस्यार को अपना समझकर सुलझाने में लग जाते थे वहीं शहरों में पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है.. अपने को क्या । अपना तो काम हो गया ना..। दस कदम दूर आग रही है.. लग रही होगी..। जब अपने घर तक आएगी.. तब देखेंगे।
क्यों..। आखिर क्यों और कब तक ऐसा ही चलेगा। हर बार राष्ट्रीय कवि रामधारीसिंह दिनकर की वो लाइनें याद आती हैं कि सिंहासन खाली करो, जनता आती है। हालांकि ये लाइनें भी लिखी गई थीं 1950 में लेकिन इसका उपयोग हुआ 1977 में। खैर.. ये तो वक्त की बात है। इसी का उपयोग अब कब होगा और कौन करेगा.. इसका पता नहीं लेकिन इसका उपयोग करने का समय आ गया है। अगर अब भी कोई मशाल नहीं जली तो फिर आम आदमी की किस्मत में रोना लिखा है, पिसना लिखा है और वही होगा।
कटु सत्य… 🙁