भिखारी नए जमाने के
प्रतिस्पर्धा के मौजूदा दौर में हर कहीं दो तरह के लोग पनप रहे हैं। एक नकलची और दूसरे प्रतिस्पर्धा रखने वाले। नकलचियों की भरमार के साथ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल हो जाते हैं।
वह भी सिर्फ अपना वजूद कायम रखने की कोशिश में सफल होकर दिखाने के लिए। प्रतिस्पर्धा स्वकल्याण और व्यक्तित्व विकास के लिए हो तब तक टीक है लेकिन जब प्रतिस्पर्धा का जन्म प्रतिशोध और नकारात्मक चिंतन से आरंभ हो, तो इसके परिणाम बुरे ही आते हैं।
आदमी अपनी तरक्की और अपने वजूद को कायम करने भर के लिए घर की साफ-सफाई, दाने बीनने, पानी भरने, सब्जी लाने से लेकर उन सभी कामों को करने लगता है जो वह कर सकता है। आदमी का यही समर्पण उसके अभिनय से भरे-पूरे जीवन का वह महानतम समय होता है जब लोकप्रियता के लॉलीपाप का रस चूसने के लिए वह आदमीयत तक को किसी भी सीमा तक गिरवी रख सकता है। अपने पावन इलाके की बात हो या दूर दराज के किसी भी क्षेत्र की, इलाका पहाड़ी हो या मैदानी या फिर घाटियों और नदियों वाला क्षेत्र। खच्चरों की सभी जगह भरमार है।
जितनी अधिक संख्या में खच्चरों का बोलबाला है उससे अधिक परिमाण में व्यापक हैं अपने-अपने चरागाह। ये चरागाह ही हैं जो उगलते हैं नोट और ये खच्चर इन्हीं के बीच रमण करते हुए पूरी की पूरी जिन्दगी गुजार देते हैं। खच्चरों का न कोई गोत्र होता है न वंश का अभिमान। सारा जहाँ इनके लिए उन्मुक्त चरागाह ही है जहाँ न कोई रोक-टोक है, न कोई मर्यादाएँ।
जहाँ कहीं मूर्खों, नालायकों और नाम पिपासुओं की भीड़ हों वहाँ दुनिया के सारे स्टंट और षड़यंत्रों का जमावड़ा अपने आप होने लगता है। मौलिक दिशा-दृष्टि और बौद्धिक क्षमताओं की दृष्टि से हीन या अपरिपक्व लोगों को अपना वजूद कायम करने और दिखाने के तमाम प्रकार के हथकण्डों को अपनाना पड़ता है और ऐसे में इनके ही समानधर्मा और समान सोच वाले लोग भी हर कहीं टकरा ही जाते हैं।
अँधों और लूले-लंगड़ों का संबंध ही ऐसा बन जाता है कि दोनों ही किस्मों के लोग एक-दूसरे पर आश्रित रहकर ही आगे बढ़ने के स्वप्नों को साकार करते रहते हैं। फिर संसार यात्रा में जहां कहीं किसी की कमी आ जाती है वहाँ कमी को पूरा करने के लिए खूब लोग पहले से ही लाईन में प्रतीक्षारत हुआ करते हैं। इसलिए इस किस्म के लोगों का पारस्परिक संबंध किसी न किसी के साथ बनता-बिगड़ता रहता है। एक बार जब लोकप्रियता की भीख मांगने का कटोरा लेकर जो निकल पड़ता है उसके लिए किसी भी प्रकार की गलियां और किसी भी किस्म की भीख सहज स्वीकार्य होती है। इन लोगों के लिए वो हर शख़्स देवदूत या आका होता है जो इन्हें भीख में किसी न किसी किस्म का कोई नायाब तोहफा थमा देता है।
आजकल किसम-किसम के ऐसे भिखारियों का जमघट हर तरफ लगा हुआ है। इनके लिए यह जरूरी भी नहीं कि पूरी जिन्दगी भीख देने वालों का जयगान करते रहें। जरूरी है तो बस इतना कि जब तक भीख अपने पेट में जगह बनाए रखती है तभी तक यशोगान करें अपने आकाओं का, फिर कुछ दिन बाद दूसरे आकाओं के आगे हाथ पसारने का क्रम। यह दौर तब तक चला रहेगा जब तक भिखारी या भीख देने वाले रहेंगे। और ये दोनों ही कालजयी हैं इसलिए इन भिखारियों का गोत्र दूर्वा घास की तरह हमेशा बना रहने वाला है। भीख और भिखारियों का यह कालजयी वजूद ही है जो अच्छे-अच्छे लोगों से वह तक करवा देता है जो बुरे से बुरे लोग भी नहीं कर पाते। भीख या भिखारियों का स्वरूप और तौर-तरीके ही बदलें हैं। बाकी सब कुछ वही है जो सदियों से होता रहा है और होता रहेगा। जब तब भिखारी कल्चर के लोग रहेंगे तब तक किसम-किसम की भीख का इंतजाम होता रहेगा। कभी सायास तो कभी अनायास।
– डॉ. दीपक आचार्य