जीवन के प्रत्येक कर्म के साथ मनुष्य फल चाहता है या यों कहें कि आदमी परिणाम को देखकर ही कर्म करने को उद्यत होता है। कुछ बिरले कर्मयोगियों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश आबादी ऎसी ही है जो फल को देखकर कर्म करने की शुरूआत करती है।
कर्म की यात्रा का हर चरण पूरा हो जाने के बाद उसका आकर्षण फल पाने की दिशा तलाशने लगता है। फल मिल जाने का आभास मिलने पर और अधिक उत्साह से कर्म करने लग जाता है और आभास तक नहीं पाने की स्थिति में उसकी कर्म की गति थोड़ी मंथर हो जाती है। इसी मानवीय स्वभाव को देखकर कहा गया है कि जो लोग कर्म करते हैं उन्हें पग-पग पर प्रोत्साहन और संबल जरूर चाहिए और इसी के आधार पर कर्म की गति न्यूनाधिक हो जाया करती है। इसलिए हमारे आस-पास तथा विभिन्न क्षेत्रों में अच्छे कर्म करने वालों को प्रोत्साहित और बुरे कर्म करने वालों को हतोत्साहित करने का विधान तथा परंपरा रही है।
कर्म करने वालों में दो प्रकार की किस्म के लोग होते हैं। एक वे हैं जो स्वान्तः सुखाय कर्म करते हैं। दूसरी किस्म के लोग वे हैं जो फल पाने, औरों को दिखाने तथा पब्लिसिटी पाने के लिए कर्म करते हैं। इनमें पहली किस्म में जो लोग हैं उनके जीवन का हर कर्म स्वान्तः सुखाय होता है और ये लोग अपने ही कर्म में इतने रमे रहते हैं कि उन्हें न औरों की परवाह है न और क्या सोचते हैं, इसकी कभी परवाह होती है। दूसरी किस्म के लोगों की वर्तमान युग में बहुतायत है। इस प्रजाति के लोगों का पूरा ध्यान कर्म के प्रति एकाग्रता और प्रगाढ़ता की बजाय फल की ओर टिका रहता है। इस किस्म के लोग अपने जीवन में कोई भी गतिविधि करते हैं तो उन्हें अपने सामने या तो स्वार्थ दिखेंगे अथवा संसार। इन दोनों में से कोई नसीब न हो तो ये लोग कर्म को हाथ भी नहीं लगाते।
बहुतेरे लोग छपास के इतने भूखे होते हैं कि इस भूख के मामले में भेड़ियों को भी पछाड़ दें। ये लोग दिन उगते ही इस तलाश में लग जाते हैं कि आज के दिन कौन सा कर्म करें या स्टंट अपनाएं ताकि छपास की भूख मिट सके। ऎसे लोग अपनी भूख को मिटाने के लिए दुनिया भर के तमाम हथकण्डों को बड़े ही गर्व तथा गौरव के साथ अपनाने में कभी पीछे नहीं रहते। कई बार अंट-शंट नवाचारों की बलि चढ़ाकर भी अपनी नाम छपास और फोटो दिखाऊ भूख को शांत करने के जतन में जुटे रहते हैं। अपना इलाका हो या दूसरा कोई सा क्षेत्र, आदमी की यह भूख दिनों दिन ज्वालामुखी होती जा रही है और उसका लावा जहां-तहां पसरने लगा है। अपने इलाके में भी कुछ लोगों का एक समूह बन गया है जो नाम पिपासु सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करने लगा है। ऎसे लोगों को रोजाना नाम और फोटो के छपास की महामारी लग गई है। ये लोग हर फंक्शन और प्रदर्शन में फोटो खिंचवाने और नाम छपाने के लिए आगे रहते हैं और इसके लिए मरने-मिटने तथा हर प्रकार के संघर्ष करने तक को तैयार हो जाते हैं।
कई इलाकों में तो ऎसे लोगों की लम्बी सूची है और इनका नाम सामने आते ही लोग यह कहने लग जाते हैं कि ये लोग नाम और फोटो छपास के महानतम रोगी और भूखों में शुमार है।
कई लोग तो ऎसे हैं जो लोकेषणा अर्थात लोकप्रियता पाने के लिए ही पैदा हुए हैं और ऎसे लोगों को रोजाना खबरों में बने रहने की आदत सी पड़ गई है। कई लोग ऎसे हैं जो वर्षों से खबरों और फोटो में बने रहने के आदी हैं। बावजूद इसके उनकी भूख शांत होने की बजाय और अधिक बढ़ती ही जा रही है और आज भी थमने का नाम नहीं ले रही है।
इन लोगों के हर कर्म का आधार पब्लिसिटी ही हो गया है या अपने स्वार्थों की पूर्ति। इतना सब कुछ हो गया पर इनको आत्मतुष्टि अभी तक नहीं मिल पायी है। इनका हर क्षण उद्विग्नता और असंतोष से भरा ही दिखता है। सारे संसार की संपदा और प्रसिद्धि प्राप्त हो जाने के बावजूद आनंद की प्राप्ति नहीं हो पाए तो जीवन व्यर्थ है। ऎसे लोगों को लोकप्रिय भले ही कह लिया जाए, इन्हें सफल कभी नहीं माना जा सकता है क्योंकि सफल व्यक्ति तुष्ट होता है और जब तक संतोष नहीं है कोई भी व्यक्ति सफल होने का दम नहीं भर सकता। ऎसे लोगों को जीवन पर्यन्त कभी भी आनंद नहीं मिल पाता। सफलता का पैमाना है आत्म संतुष्टि। जब भी किसी कर्म को करने के बाद आत्मिक संतोष प्राप्त हो, तभी यह मान लेना चाहिए कि कर्म सफल हुआ है और सफलता प्रदान करने वाला है।
डॉ. दीपक आचार्य