जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग में व्याख्यानमाला
Udaipur. ‘‘सृष्टि का विकास एवं ह्रास निरन्तर है। उसके निर्माण में छह द्रव्यों का संयोग होने से उसकी सत्ता का अहसास हमें होता है। द्रव्य, गुण एवं पर्याय के रूप में थित द्रव्य की तात्विक मीमांसा जैनाचार्यों ने की है, जो अत्यधिक सटीक एवं उचित प्रतीत होती है।
ये विचार अमेरिका से भौतिक शास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर पारसमल अग्रवाल ने जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग द्वारा आयोजित विस्तार व्याख्यानमाला में व्यतक्तप किए। मोहनलाल सुखडिय़ा विश्वाविद्यालय के जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग द्वारा आयोजित विस्तार व्याख्यानमाला में उन्होंने कहा कि जैन परम्परानुसार विश्वव को किसी के द्वारा न तो निर्मित ही किया गया, न ही उसको सुरक्षित रखने का कार्य किसी के द्वारा किया जाता है और नहीं उसको कोई नष्टह ही कर सकता है। क्योंकि द्रव्य की सत्ता सदैव से है एवं सदैव तक रहेगी। न वह कम हो सकता है और न ही समाप्त हो सकता है।‘ जैनविद्या की तात्विक मीमांसा पर कहा कि आत्मा को बाह्य एवं आभ्यंतर इन दो रूपों में देखा जा सकता है। जब हम आत्मा के बाह्य रूप को देखते हैं तब समस्त क्रिया— कलाप के रूप में उसकी गतिशीलता देखी जाती है तथा अभ्यंतर जगत में जीव/आत्मा का रूप भावनाओं, संवेदनाओं, वैचारिक धरातल के रूप में आत्मा की सक्रियता देखी जाती है।
विस्तार व्याख्यानमाला के मुख्य अतिथि, पूर्व निदेशक प्रो. प्रेमसुमन जैन ने अतिथियों का स्वागत करते हुए व्याख्यान के विषय को बहुत बारीकी से स्पष्टं किया। जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के अध्यक्ष डा० जिनेन्द्र कुमार जैन ने इटली से आए कुल 21 अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग अपने स्थापनाकाल से ही जैनविद्या एवं प्राकृत साहित्य पर शोध कार्य कराने के लिए कृतसंकल्पित है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कला महाविद्यालय के अधिष्ठारता प्रो. शरद श्रीवास्तव ने की। इटली से पधारी महिला अतिथियों में मेडम लोरा क्लेमेंट ने व्याख्यान के प्रमुख अंशों का इटालियन भाषा में अनुवाद कर व्याख्यान को और भी सरस बनाया। अंत में विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा० ज्योति बाबू जैन ने आभार व्यक्त किया।