दुनिया में जहां मानवीय मूल्यों को प्रधानता प्राप्त है वहाँ लोक सेवा, परोपकार और सदाशयता के साथ ही तमाम नैतिक मूल्यों और आदर्शो को महत्त्व प्राप्त है लेकिन जहाँ-जहाँ किसी भी अंश में व्यवसायिक मनोवृत्ति या स्वार्थ पूर्ण मानसिकता आ जाती है वहाँ-वहाँ न धरम-करम है, न सामाजिक विकास की स्वस्थ परंपराएं और न ही परोपकार या दूसरों के प्रति संवेदनशीलता का कोई भाव दिखाई देता है।
व्यक्ति की प्रवृत्तियां ही उसकी वृत्तियों का निर्माण करती हैं। जैसे संस्कार और बीज होते हैं उन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व का पौधा पल्लवित और पुष्पित होता है। यह व्यक्तित्व की बुनियाद पर निर्भर है कि वह आदर्श प्राप्त कर वटवृक्ष में बदल जाए अथवा कांटों के घने जंगल के रूप में समाज की छाती पर छा जाए अथवा ठूंठ की तरह यों ही पड़ा-पड़ा मानवी संस्कृति को कलंकित करता रहे।
इन सभी के पीछे जो भावनाएं हैं वह दो आधारों पर निर्मित होती हैं। एक में व्यक्ति अपने ही स्वार्थों की सोचता और करता रहता है और ऎसे में उसका व्यक्तित्व अवतल दर्पण की तरह हो जाता है जिसमें आने ही आने का भाव छिपा रहता है। व्यक्ति अपने आपको ही सब कुछ समझता है और बाहरी संसार इसमें छोटा दिखता है।
ऎसे आत्मकेन्द्रित लोग भौतिक संपदा के स्वामी तो हो सकते हैं लेकिन जनता के दिलों पर राज करने की सारी क्षमताएं और अवसर खोते चले जाते हैं। दूसरी किस्म के लोग समाजोन्मुखी होते हैं और उनके जीवन का ध्येय त्याग के साथ ही सेवा और परोपकार से जुड़ा होता है। वे समाज के लिए जीते और मरते हैं तथा जो कुछ कर्म करते हैं उसमें समाज प्रधान होता है।
आजकल ऎसे खूब सारे बिजूके हमारे बीच में हैं जो खुद की ताकत भुला चुके हैं और बाहरी हवाओें से हलचलों में रमे हैं। कभी बंदर आकर इन्हें चिढ़ाते हैं, कभी जात-जात के पक्षी। आदमी फटे पुराने चिथड़ों में रहकर भी किसी न किसी का बिजूका बने रहने में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करने लगा है। बात घर-परिवार की हो, अपने समाज की या फिर हमारे क्षेत्रों की, सभी जगह आजकल सामुदायिक हितों की बलि चढ़ने लगी है।
सामुदायिक एवं शामलाती उपयोग या लाभ की बातों को दरकिनार कर हर कोई चाहता है कि जो कुछ मिल जाए, वह उसके ही खाते में चला जाए। इसी को लेकर उन तमाम सामुदायिक संसाधनों, स्थलों और क्षेत्रों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। व्यावसायिक मानसिकता के लोग जहां कहीं होंगे वहीं इसी प्रकार के खतरे उठाने पड़ते हैं लेकिन ऎसे चंद व्यवसायिक लोगों की हरकतों का खामियाजा समाज सदियों तक भुगतता है। आजकल तो आदमी इतना व्यवसायिक हो गया है कि उसकी बोली-चाली से लेकर हरेक कर्म में बिजनैस माइंड हावी है और खुद आदमी अदद आदमी न होकर दुकान में तब्दील हो गया है। समाज को सर्वाधिक खतरा यदि किसी ने पहुंचाया है तो उन्हीं लोगों ने जो व्यवसायिक मनोवृत्ति के मारे हैं और जिनका समाज या सामुदायिक हितों से कोई लेना- देना नहीं है। ये लोग हर काम में पैसा या लाभ देखते हैं।
कई बहुरूपियों की ऎसी जमात हमारे सामने नृत्य करने लगी है जिसके नाच-गान के बोल तो समाज के भले का पैगाम देते हैं लेकिन भलाई के नाम पर ये ऎसे कारनामें कर गुजरते हैं कि आने वाली पीढ़ियां अपने नपुंसक और निर्वीर्य पुरखों को कोसती रहती हैं। व्यावसायिक मानसिकता हावी हो रही है और हम सब चुपचाप देखने की मानसिकता पाले हुए बैठे हैं। समाज की सेवा और परोपकार के कामों में भी व्यवसायिकता घुस आएगी तो कल आदमी इंसानियत खो देगा। इसकी शुरूआत तो हो ही चुकी है।
– डॉ. दीपक आचार्य