उदयपुर। संथारा संलेखना पर न्यायालय द्वारा रोक लगाने से समग्र जैन समाज में रोष है। सभी ने अपने अपने स्तार पर इसका विरोध जताते हुए पुनर्विचार की मांग की है।
महावीर जैन परिषद के संयोजक राजकुमार फत्तावत ने बताया कि जीवन के अंतिम समय में मृत्यु निकट जानकर विधिपूर्वक स्वेच्छा से अनशन के साथ शरीर, कषाय, इच्छाएं एवं विकारों को क्रमश: क्षीण करते हुए समभाव पूर्वक मृत्यु का सामना करना संथारा कहलाता है। यह शरीर शुद्धि एवं आत्म कल्याण व मोक्ष प्राप्ति के लिए किया जाता है। संथारा प्रथा को जाति विशेष से न जोड़कर शास्त्रों में उल्लेखित तर्कों के साथ इस पर निर्णय होना चाहिए था। जैन समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि जाति-भाषा एवं संस्कृति के आधार पर अल्पसंख्यक को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। अत: इस फैसले पर जैन समाज पुन: विचार की पुरजोर मांग करता है।
संथारा आगम सम्मत तपाराधना : दिनेश मुनि
शिरडी में चातुर्मास कर रहे दिनेश मुनि ने कहा कि द्वार पर दस्तक देती मृत्यु का सहर्ष आलिंगन संथारा है। जैन धर्म में मृत्यु को महोत्सव कैसे बनाया जाए, यह साधना पद्धति बताई गई है। राजस्थान कोर्ट द्वारा लगाई गई धर्म साधना पद्धति पर रोक निंदनीय है।
स्वतंत्र देश में स्वतंत्र नागरिको को अपने अपने धर्म की उपासना – साधना करने का अधिकार है। और जैन धर्म में आत्महत्या को बुरा कृत्य माना गया है। आत्महत्या करने का विचार भी जैन धर्म में वर्जित है। इसके लिए प्रयास करना तो बहुत ही अधिक निन्दनीय माना गया है। उपरोक्त विचार श्रमण संघीय सलाहकार दिनेष मुनि षिर्डी के जैन स्थानक में ‘जैन धर्म में संथारा का महत्त्व’ विषय पर श्रद्धालुजनो को संबोधित कर रहे थे। उन्होनें कहा कि उत्तराध्ययन सूत्र के 36 वें अध्ययन की 268 वीं गाथा में लिखा है, ‘शस्त्र प्रयोग, विष भक्षण, अग्निप्रवेश, जल प्रवेश आदि अनाचरणीय साधनों का सेवन करते हुए जो व्यक्ति अपनी जीवन-लीला का समापन करते हैं वे जन्म और मरण के बंधनों को सदा के लिए बांध लेते हैं।