राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘अल्फ़ाज़ – 2015’
उदयपुर। नाट्यांश सोसाइटी ऑफ ड्रामेटिक एंड परफोर्मिंग आर्ट्स, उदयपुर व हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय, तीसरे राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘अल्फ़ाज़ – 2015’ की शुरुआत | समारोह का शुभारम्भ डा मीना बया, नाट्यान्श सोसाइटी के अद्यक्ष श्री अशफाक़ नूर खान, सचिव श्री अमित श्रीमली ने माँ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्जवलन कर किया | जिसमें मुख्य अतिथियों के रूप में श्री मीना बया आदि मौज़ूद रहे।
दो दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘अल्फ़ाज़’ के प्रथम दिन नाट्यांश सोसाइटी ऑफ ड्रामेटिक एंड परफोर्मिंग आर्ट्स की प्रस्तुति नाटक ‘दुलहिन एक पहाड़ की’ का मंचन किया गया जिसका लेखन इज़ाबेल एंड्रूस, हिंदी रूपान्तरण मृदुला गर्ग व निर्देशन रेखा सिसोदिया द्वारा किया गया।
इसाबेल एंड्रूस द्वारा लिखित और मृदुला गर्ग द्वारा अनुवादित नाटक ‘दुल्हन एक पहाड़ की’ एक ऐसी लड़की पर आधारित है जो पहाड़ों पर रहती है और जो कभी बंदिशों मे नहीं रही | मगर शादी के बाद घर के पंपराओ को अपनआने के साथ साथ अपने दृढ़ निश्चय , इच्छाशक्ति और मजबूत विचारो के बल पर वो बदलाव लाती है।
नाट्यांश की इस प्रस्तुति में मंच पर दुलहिन के किरदार में देवप्रभा जोशी, दादीजी के किरदार में निधि पुरोहित, माँ के किरदार में रेखा सिसोदिया व पड़ोसन के किरदार में नेहा पुरोहित ने अपने अभिनय से नाटक का भावपूर्ण सन्देश दर्शकों तक पहुँचाया | नाटक की परिकल्पना व निर्देशन रेखा सिसोदिया द्वारा किया गया। राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ‘अल्फ़ाज़ – 2015’ में दिनांक 25 दिसम्बर 2015 को सांय 6:30 बजे अवितोंको, मुंबई द्वारा ‘बिम्ब प्रतिबिम्ब’ नाटक का मंचन किया जायेगा | इस एकल नाटक की लेखिका एवं अदाकारा विभा रानी के अनुसार इसमे समाज की दोहरी मानसिकता को दर्शाया गया है जिसमे कहा कुछ और किया कुछ जाता है । कम उम्र मे विवाह और फिर पति की मौत के बाद विधवा की जिंदगी कैसी होती है उसका मार्मिक चित्रण किया गया है । इस नाटक का निर्देशन बॉम्बे कन्नण ने किया है |
नाटक ‘दुल्हिन एक पहाड़ की’ का सार
नाटक घर के रोज़मर्रा के काम काज से शुरू होता है जहा एक तरफ माँ घर के सभी कामो को जल्दी जल्दी खत्म करने मे लगी हुयी है वही बूढ़ी दादी तन्मयता से चरखा चलाती रहती है। इन दोनों की पूरी जिंदगी इसी घर मे गुजरी है और अंधेरे की इतनी आदी हो गयी है की वो रोशनी की एक किरण भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। साल-दर-साल मेले मे जो भी बदलाव होते गए है वो इन्हे नही पसंद।
इसी बीच इनके घर मे पड़ोसन की दस्तक होती है। पड़ोसन बहुत ही टिपिकल पात्र है – बड़ी रोचक, मनोरंजक, हर काल और घर-घर में पाई जाने वाली हर बार एक सी, खास समय और चर्चा-कुचर्चाओं, खबरों में मस्त। जो सब कुछ जानते हुये भी अनजान रहती है और इधर की बातें उधर करती है। उसकी यह आदत माँ को बिलकुल पसंद नहीं पर लोक-लाज के कारण कुछ कहती नहीं सिर्फ खामोशी से उसकी हर बात सुनती है।
नाटक के केंद्र में है युवा दुल्हन। उसमें द्वंद भी है, हंसी, मेले की चमक भी है और आजाद प्रकृति भी। दुल्हन की परवरिश खुले माहौल में हुयी है जहां उसे कुछ भी करने और अपनी तरह से जिंदगी जीने की पूरी आजादी थी। दुल्हन जब पहली बार अपने ससुराल मे प्रवेश करती है तो अंधेरे की वजह से उसको घुटन महसूस होती है और जब वो दरवाजे और खिड़की खोलकर रोशनी को भीतर लाने का प्रयास करती है तो माँ और बूढ़ी दादी उसे मना कर देते है यह कहकर की आज तक इस घर मे ऐसा नहीं हुआ इसलिए आगे भी नहीं होगा। घरवाले उसे रीति रिवाजों में बांधने की, परिवार और पति तक सीमित रखने की कोशिश करते है। दुल्हन धीरे-धीरे खुद को नए परिवेश मे ढ़ालती है, नए घर के तोर तरीको और परम्पराओ को अपनाती है लेकिन खुद के ‘स्व’ और ‘अस्तित्व’ को बर्करार रखते हुये। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और मजबूत विचारों के बल पर बन्दिशों के होते हुए भी घर में बदलाव लाती है। उसे इस बात का डर नहीं है की लोग क्या कहेंगे। उसके हाथ में एक किताब है और एक संकल्प है, रोशनी का।