सत्संग के बिना विवेक की प्राप्ति नही – मुरारी बापू
नाथद्वारा। विश्वास स्वरूपम को प्राप्त करना है तो अपना सर्वस्व प्रभु के चरणों में समर्पण करने का भाव स्थापित करना होगा। विश्वास के स्वरूप को पाने का मार्ग विवेकशीलता, धैर्यशीलता के पड़ावों से होकर गुजरता है, किन्तु जहां विवेक हार जाता है, जहां धैर्य डगमगा जाता है, वहां आराध्य में अनन्य आश्रय ही दुविधाओं से पार लगाता है। उक्त उद्गार मुरारी बापू ने मानस विश्वास स्वरूपम रामकथा के दूसरे दिन रविवार को व्यासपीठ से व्यक्त किये।
भरोसो दृढ़ इन चरणन कैरो। श्री वल्लभ नख चंद्र छटा बिन, सब जग माही अंधेरो। साधन और नहीं या कलि में, जासों होत निवेरो। सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो।’ सूरदास जी के इस पद को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि पुष्टिमार्ग में आराध्य पर अटूट भरोसे की बात कही गई है। जब व्यक्ति में विवेक नहीं रहता तो धैर्य के डगमगाने की स्थिति भी आन पड़ती है, तब सूरदासजी कहते हैं ‘भरोसो दृढ़ इन चरण न कैरो!’ बापू ने कहा कि साधक को श्रद्धा चरण में और विश्वास वचन में रखना चाहिए। श्रद्धा माता के चरण हैं और विश्वास पिता के वचन हैं। भरोसा एक ऐसा शब्द है जिसमें श्रद्धा और विश्वास दोनो समाहित हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विशेष
श्रीनाथद्वारा में विश्व की सबसे ऊंची शिव प्रतिमा के लोकार्पण के साथ शुरू हुई रामकथा के दूसरे दिन उन्होंने ‘विश्वास के स्वरूप’ और उस स्वरूप को प्राप्त करने की व्याख्या करते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विशेष है। उन्होंने कहा कि हमें विशेष होने की जरूरत नहीं है बल्कि किसी एक विषय में पारंगत हो जाने की जरूरत है। व्यक्ति विश्वास से ही विशेष बनता है। यह भाव रखना चाहिए कि जो प्राप्त है वही पर्याप्त है। लक्ष्मी भी चंचला कही गई है। जब वह आपके पास होती है तो आपको विशेष बना देती है, अच्छा परिवेश आपको विशेष बना देता है, कोई अपनी वृत्ति से विशेष हो सकता है, कोई अपने वेश से विशेष हो सकता है, लेकिन यह विशेषताएं समय के साथ ही विलोपित हो सकती हैं, टिकता सिर्फ विश्वास है। लोग आप पर कितना विश्वास करते हैं, वह आपको विशेष बनाती है और विश्वास का आधार प्रामाणिकता व सदकर्म हैं। दृऔर इस विश्वास के आधार को पाने का मार्ग विवेकशीलता, धैर्यता की तपस्या से गुजरता है। और इस तपस्या का परम चरण अपने आराध्य में अटूट आश्रय को मन में धारण कर लेना है।
राम पूर्णावतार हैं
मुरारी बापू ने कहा कि राम ऐसे तत्व हैं जो पूर्णावतार हैं। सीता और राम दोनों एक ब्रह्म हैं, लेकिन लीला क्षेत्र में दो बनकर आये। दिखने में भले ही वे भिन्न हों, लेकिन एक शब्द और दूसरा अर्थ है। सीताराम एक ही ब्रह्मतत्व है। कलियुग में हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं हैं, लेकिन त्रेता युग की लीला के रूप में आज हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं।
परम मंत्र है राम नाम
बापू ने कहा कि प्रथम पूज्य की पुरानी परम्परा है। जो सब कुछ पचा जाता है, वही प्रथम पूज्य है। आज राम नाम ही प्रथम पूज्य है। उन्होंने कहा कि सतयुग में परमात्मा की प्राप्ति के लिए ध्यान किया जाता था। त्रेता युग में भगवान प्राप्ति के लिए यज्ञ करते थे। द्वापर युग में भगवान के पूजन-अर्चन से परमात्मा की प्राप्ति की जाती थी। अब कलियुग में भगवान के नाम सुमिरन से भगवान की प्राप्ति संभव है। कलियुग में केवल परमात्मा का नाम ही भगवान की प्राप्ति है। भजन ही धर्म है। केशव का कीर्तन ही परम है। उन्होंने कहा कि राम एक परम मंत्र है। भगवान शिव ने जब विष पीते समय राम का उच्चारण किया तो शिवजी को विश्राम की प्राप्ति हुई। जिसको राम नाम की आदत पड़ जाती है वह दूसरों की निन्दा करना ही छोड़ देता है।
सुबह-शाम होगी आरती, गूंजेगा घंटनाद
बापू ने विश्वास स्वरूपम् परिसर में नियमित रूप से प्रातः व सायंकाल 7 बजे घंटनाद के साथ आरती का आह्वान किया। श्रीजी की नगरी में इन दिनों अल सुबह से लेकर देर रात्रि तक उत्सवी माहौल बना हुआ हैं। गणेश टेकरी शिव प्रतिमा के आसपास देर रात्रि तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता है। आयोजक संत कृपा सेवा संस्थान की ओर से त्रिनेत्र सर्किल सहित अन्य प्रमुख चौराहों पर की गई आकर्षक सजावट का आकर्षण लोगों को खींच रहा है। मध्य रात्रि तक भी लोग सेल्फी लेते नजर आ रहे हैं।