उदयपुर. शारदीय नवरात्रा को लेकर शक्तिपीठों ओर दैवी स्थानकों पर साज-सज्जा पूरी हो चुकी है. बुधवार को यहाँ घट स्थापना के साथ नौ (इस बार आठ) दिवसीय नवरात्रा शुरू हो जायेंगे. शुभ मुहूर्त में शक्तिपीठों सहित श्रद्धालु अपने-अपने घरों में कलश स्थापना करेंगे. शहर और आसपास के शक्तिपीठों पर श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों की भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने सुरक्षा व्यवस्था के इंतजाम किए हैं।
नवरात्रा में शक्तिपीठों पर मेले सा माहौल रहेगा। शक्तिपीठों के बाहर माता की चुंदरियां, प्रसाद, माला, नारियल आदि की दुकानें सज गई हैं. अंबामाता मंदिर, मंशापूर्ण करणी माता, कालिका माता, नीमजमाता, सुखदेवी माता, आवरीमाता, आशापुरा, चामुंडा आदि मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना होगी। शक्तिपीठों पर मातारानी के भजन सुनाई देने लगे है।
प्रतिपदा से घर-घर साधकों ने देवी की स्थापना कर दुर्गा सप्तशती, रामायण, देवी भागवत, देवी पुराण, हनुमान चालीसा, रामायण के नवाह्न पाठ आरंभ होंगे। बड़ी संख्या में लोग व्रत, उपवास भी करेंगे. नीमजमाता, आशापुरा और करणी माता के मंदिर पहाड़ी पर होने से भक्त अलसुबह चढ़ाई करेंगे. शहर भर में रास्तों, चौराहों पर मौजूद देवरों पर रंग रोगन के साथ रंग बिरंगी फर्रियों के साथ विशेष लाइटिंग की गई है.
शुभ मुहूर्त
पंडित प्रकाश परसाई ने बताया कि बुधवार सुबह ६.३० से ९ बजे लाभ-अमृत के चौघडिये में तथा ११ से ११.४५ तक शुभ के चौघडिये में घटस्थापना करना शुभ रहेगा. हालांकि दोपहर १२ बजे भी अभिजीत मुहूर्त है लेकिन राहू काल होने से यह मुहूर्त अमान्य है.
सजे गरबा प्रांगण
शहर की विभिन्न वाटिकाओं, क्षेत्रों में बुधवार शाम से डीजे साउंड सिस्टम के साथ डांडिया की खनक ओर गरबा के गीतों की गूँज शुरू हो जायेगी. आयड़ स्थित सत्यम, शिवम, सुदरम वाटिका में स्पार्कल्स की ओर से आठ दिन तक गरबा आयोजन होगा. सुथारवाडा में स्टेज बनकर तैयार हो चुका है. शुभ मुहूर्त में प्रतिमा की स्थापना की जायेगी.
शैलपुत्री- नवदुर्गाओं में प्रथम
संबंधित हिन्दू देवी
अस्त्र-शस्त्र त्रिशूल
जीवनसाथी शिव
वाहन गाय
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं।[1] ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है।
शोभा
वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।
कथा
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।’
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
उपसंहार
‘शैलपुत्री’ देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।
(यह जानकारी उदयपुर न्यूज़ के नियमित दर्शक निखिल तम्बोली ने हमें उपलब्ध कराई है.)
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