शारीरिक कष्टों का निवारण पाकर निहाल होते हैं दुखी
फतहनगर। मेवाड़ पुरातनकाल से शक्ति की उपासना के लिए प्रसिद्ध रहा है। आधिपत्य काल में युद्ध में जाने से पूर्व राजा-महाराजा शक्तिपीठों में शक्ति की पूजा-अर्चना किया करते थे। इससे महाराणाओं को अतुलित शक्ति हासिल होती थी जिसके समक्ष दुश्मन नहीं टिक पाते थे। इनमें आवरीमाता और जोगणिया माता प्रमुख शक्तिपीठों में गिने जाते थे।
ऐसा ही एक शक्तिपीठ उदयपुर जिले के फतहनगर कस्बे में है जिसे भी आवरीमाता के नाम से जाना जाता है। यह शक्तिपीठ करीब तीन सौ वर्ष पुराना है। इसके बारे में शक्तिपीठ के शिलालेख के अनुसार कहा जाता है कि ठाकुर नाहरसिंह के शासन काल में देवा भील सनवाड़ से बालक के साथ चित्तौड़ जिले के आवरामाता गया जहां पर बालक ने चूरमा देख कर भोपा से चूरमा मांगा। भोपा ने बालक को चूरमा नहीं दिया। देवा ने माता के सामने अरदास की तथा बालक व देवा वहीं मंदिर में सो गए। रात को माताजी सपने में आई और बोली मैं तुझे चूरमा खिलाऊंगी। माता ने कहा कि रास्ते में तुझे रोटी की मनुहार होगी, वह तू खाता जाना। मैं तेरे साथ आ रही हूं। लौटते समय रास्ते में रोटी की मनुहार हुई। वे रोटी खाकर सो गए। सपने में माताजी ने कहा कि तेरे बकरियां बहुत है रे। तू पोतल्या पीला बकरा लेकर आना। देवा भोपा बकरा लेकर आया और पीछे से आवाज आई कि यहां बोरड़ी का झाड़ और उदाई का बड़ा बीमला है। देवा भोपा ने बीमला देखा तो वहां दो नमून नजर आए। माताजी ने देवा को आपरूप प्रकट होकर दर्शन दिए। देवा देवी दर्शनों को पाकर निहाल हो गया। यहीं देवा ने गढ्ढा खोदा तथा रोजाना दीपक जलाकर पूजा इत्यादि करने लगा। पहले कच्चा मंदिर बना और आज कलात्मक मंदिर खड़ा है।
एक अन्य किवदंती के अनुसार सनवाड़ ठिकाने के महाराज तथा उनकी प्रजा चित्तौडग़ढ़ जिलान्तर्गत आवरीमाता के दर्शनार्थ जाया करते थे। घने जंगल तथा दुर्गम रास्तों के कारण वहां जाते समय जंगली जानवरों के शिकार बन जाते थे। देवी से भक्ततगणों की यह तकलीफ नहीं देखी गई तथा देवी यहां पधारी। जिस स्थान पर वर्तमान में विशालकाय मंदिर खड़ा है यह स्थान पूर्व में वाड़ी माता के नाम से जाना जाता था। एक शताब्दी पहले फतहनगर बसने के साथ ही इसे आवरीमाता के नाम से जाना जाने लगा। इस क्षेत्र में यह शकितपीठ अपना खास महत्व रखता है,जहां आने वाले श्रद्धालु भौतिक ऐश्वर्य की मांग नहीं करते बल्कि आरोग्य की कामना से श्रद्धापूर्वक देवी की पूजा-अर्चना करते हैं।
उदयपुर जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर उदयपुर-कपासन मार्ग पर चित्तौडग़ढ़ जिले की सीमा से सटे कस्बे का यह शक्तिपीठ क्षेत्र में अगाढ़ आस्था का महाधाम है। इसके बारे में मान्यता है कि देवी यहां आने वाले प्रत्येक दीन दु:खी की पीड़ा हरती है। लकवा पीडि़त स्त्री,पुरूष तथा बच्चे बड़ी तादाद में यहां आकर निरोगी होने की मन्नत मांगते हैं। अपने परिजनों के कंधों का सहारा लेकर आने वाले ऐसे रोगी कई-कई दिनों तक देवी के चरणों में रहने के बाद अपने पैरों से चलकर पुलकित मन से अपने घरों को लौटते हैं। मन्नत पूरी होने के बाद ये लोग श्रद्धानुसार प्रसादी भी करते हैं। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए राजपूत, गाडरी, मालवीय लौहार, कुमावत, लखारा, सालवी, खटीक, जीनगर, यादव सहित विभिन्न समाजों की एक दर्जन धर्मशालाएं बनी हैं। पेड़ों के झुरमुट के बीच बना यह स्थान बेहद रमणीक है। मंदिर के गर्भ गृह में देवी की पाषाण प्रतिमा विराजित है। इसके अलावा भी मंदिर में अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाएं हैं। दीवारों पर कलात्मक चित्रण से मंदिर की सुन्दरता मुंह बोलती है। मंदिर के सामने लम्बा चौड़ा स्थान है जहां श्रद्धालुओं का जमघट लगा रहता है। रविवार को पूजा अर्चना का विशेष कार्यक्रम होता है। इस दिन दूर-दूर से श्रद्धालु अपने परिजनों के साथ पूजा का लाभ उठाते हैं। नवरात्रि के दिनों में दस दिन तक आवरीमाता मंदिर विकास कमेटी के तत्वावधान में मेला लगता है। यह मेला पिछले 25 वर्षों से लग रहा है। मेले में विभिन्न धार्मिक आयोजन भी होते हैं जिनका लाभ लेने के लिए उदयपुर, राजसमन्द, भीलवाड़ा तथा चित्तौडग़ढ़ जिले के ग्रामीण बड़ी संख्या में आते हैं। दशाहरा पर रावण दहन विशेष आकर्षण होता है। इसे देखने के लिए भी भारी भीड़ जुटती है। रंगारंग आतिशबाजी का नगरवासी लुत्फ उठाते हैं।
रावण दहन का कार्यक्रम पहले दशहरा कमेटी करवाया करती थी लेकिन बाद में पालिका प्रशासन ने इसे अपने हाथों में ले लिया। पालिका बोर्ड की मंशा के अनुसार कार्यक्रम करवाती है। इस शक्तिपीठ के विकास को लेकर नगरवासी काफी सजग है। मंदिर विकास कमेटी में शामिल युवाओं की इच्छा शकित के कारण ही विकास को नए-नए आयाम भी मिल रहे हैं। शक्तिपीठ पर आने वाले लोगों को रात के समय आसरा मिल सके इसके लिए कमेटी के प्रयासों से स्व.अम्बालाल पालीवाल की धर्मपत्नी कमलाबाई पालीवाल ने धर्मशाला का निर्माण ही नहीं करवाया अपितु अपना पुश्तैीनी मकान तक मंदिर को दान कर दिया। पालिका प्रशासन ने भी मंदिर के विकास में हर वक्तल साथ दिया। नगर के लोगों का विकास के लिए सहयोग भी सराहनीय है। इस मंदिर के शिखर पर स्वर्ण कलश स्थापना एवं प्रतिष्ठा भी नगरवासियों के सहयोग से मंदिर विकास कमेटी के तत्वावधान में 18 अप्रेल, 2008 को नवकुण्डात्मक सहस्त्रचण्डी महायज्ञ के साथ हुई थी। इस दिन नगर में श्रद्धालुओं का रैला उमड़ा जिसने नगर की धार्मिकता को लेकर इतिहास रच दिया। इसे लोग सदियों तक नहीं भूल पाएंगे।
शंकरलाल चावड़ा