उदयपुर। मेवाड़ में दानवीर के नाम से प्रसिद्ध भामाशाह की जयंती शनिवार को धूमधाम से मनाई जाएगी। हाथीपोल स्थित चौराहे पर शुक्रवार को भी कार्यक्रम को लेकर तैयारियां जारी रहीं। भामाशाह का जन्म 28 जून 1547 में मेवाड़ की तत्कालीन राजधानी चित्तौडग़ढ़ में हुआ।
भामाशाह के पिता का नाम भारमल था। कावडिय़ा ओसवाल जैन समुदाय से सम्बद्ध थे। माता कर्पूर देवी ने बाल्यकाल से ही भामाशाह का त्याग, तपस्या व बलिदान सांचे में ढालकर राष्ट्रधर्म हेतु समर्पित कर दिया।
राणा सांगा और बाबर के बीच युद्ध हुआ यह युद्ध खानवा के युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के बाद राणा सांगा के कई समर्थक सपरिवार उनके साथ चित्तौडग़ढ़ में आकर बस गए थे। उन समर्थकों में जैन समुदाय का सदस्य भारमल भी था। राणा सांगा ने भारमल को निष्ठा, लगन को देख•र उसे चित्तौड़ दुर्ग का किलेदार बना दिया भारमल का पुत्र भामाशाह वीर एवं होनहार युवक था। उसे भी राणा ने अच्छे पद पर नियुक्त कर लिया। आगे चलकर महाराणा प्रताप ने भामाशाह को अपनी सेना में सम्मिलित कर लिया। हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी वीरता अदम्य साहस व शौय का परिचय देकर महाराणा प्रताप का विश्वाकस पात्र बन गया। भामाशाह ने मैदानों जंग में ही जोहर नहीं दिखाया अपितु युद्ध के आर्थिक मोर्चे पर भी अपनी अद्भुत प्रतिमा का परिचय दिया किसी भी युद्ध को सफलता यौद्धाओं के अलावा अर्थतंत्र पर भी निर्भर होता है। जो मेरा है सौ राष्ट्र का को अवधारणा को मूर्त रूप देकर मेवाड़ को सर्वस्त्र समर्पित कर दानवीरता की परम्परता का सूत्रपात किया।
मुगलों के साथ निरन्तर युद्ध करते रहने से महाराणा प्रताप का सारा धन समाप्त हो गया था। सेना छिन्न-भिन्न हो गई थी। महाराणा प्रताप सोच में पड़ गए। सोचने लगे धनाभाव में मेवाड़ की रक्षा कैसे कर सकेंगे? महाराणा प्रताप के सामने विकट समस्या थी। कठिनाइयों से घिरे महाराणा प्रताप को मन:स्थिति देख•र भामाशाह के दिल में स्वामिभक्ति का भाव जागा। वे अपना सारा धन छकड़ों में भरकर महाराणा प्रताप के पास पहुंचे। ‘महाराणा प्रताप’ नामक पुस्तसक में लेखक लिखते हैं ‘भामाशाह जितना धन दे रहे थे उस धन से बीस हजार सैनिक को 14 वर्ष तक का वेतन दिया जा सकता था।’ भामाशाह की त्याग भावना एवं धन को देखकर उपस्थित सामंत दंग रह गए।
भामाशाह के त्याग व स्वाभिमान को देखकर महाराणा प्रताप स्तब्ध रह गए। महाराणा प्रताप ने कहा ‘भामाशाह! तुम्हारी देशभक्ति, स्वामिभक्ति और त्याग भावना को देखकर में अभिभूत हूं परन्तु एक शासक होते हुए मेरे द्वारा वेतन के रूप में दिए गए धन को पुन: में कैसे ले सकता हूं? मेरा स्वाभिमान मुझे स्वीकृति नहीं देता।’ भामाशाह ने निवेदन किया ‘स्वामी यह धन मैं आपको नहीं दे रहा हूं। आप पर संकट आया हुआ है। मातृभूमि की रक्षार्थ मेवाड़ की प्रजा को दे रहा हूं। लडऩे वाले सैनिकों को दे रहा हूं। आप पर संकट आया हुआ है मातृभूमि पर संकट आया हुआ है। धन के अभाव में आप जंगलों में इधर-उधर घूम रहे हैं। कष्ट भोग रहे हैं और मैं आराम से घर बैठ कर इस धन का उपयोग करूं, यह कैसे संभव है? मातृभूमि पराधीन हो जाएगी। मुगलों का शासन हो जाएगा तब यह धन किस काम आएगा? अत: आपसे आग्रह है कि आप इस धन से अस्त्र-शस्त्रों एवं सेना का गठन कर मुगलों से संघर्ष जारी रखें।’
अन्य सामन्तों एवं सहयोगियों ने भामाशाह की बात का समर्थन किया। सभी ने एक मत से आग्रह किया कि संकट के समय प्रजा से धन लेना गलत नहीं है। सामन्तों के आग्रह पर महाराणा प्रताप ने भामाशाह के धन से सैन्य संगठन प्रारम्भ किया। मेवाड़वासियों, वीरों में एकनई चेतना, नई स्फूर्ति जागी। अकबर को चुनौती का सामना करने के लिए मातृभूमि की रक्षार्थ मैदान में उतर आए रण भैरवी बज उठी। शंख ध्वंनि पुन: गूंजने लगी। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप में विजय पाई। अकबर की सेना भाग खड़ी हुई। मालपुरा और कुंभलमेर पर भी महाराणा प्रताप ने अधिकार कर लिया। भामाशाह कर्मवीर योद्धा का 16 जनवरी 1600 ई. को देवलोकगमन हुआ। भामाशाह की छतरी महासतिया आहाड़ उदयपुर में गंगोदभव कुंड के ठीक पूर्व में स्मृतियों के झरोखों के रूप में स्थित हैं। सर्वस्व दृष्टि से भामाशाह मेवाड़ उद्धारक के रूप में स्मरण योद्धा है।