पन्द्रह दिन का शुरू हुआ मेला सिमटा 7 दिन पर
उदयपुर। नगर निगम द्वारा आयोजित दीपावली मेले का समापन हो गया। 15 दिन से शुरू हुआ मेला इस वर्ष मात्र 7 दिन का रह गया। इसमें भी सिर्फ 3 सांस्कृवतिक संध्याकएं हुईं। अंतिम दिन जरूर शहरवासियों को खुश करने के नाम पर आतिशबाजी की गई। शहरवासियों की नजर में भी इस बार मेले के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की गई।
उल्लेखनीय है कि पूर्व सभापति युधिष्ठिर कुमावत के कार्यकाल से आरंभ हुआ दशहरा-दीपावली मेला 15 दिन का था जो शनै: शनै: 10, फिर 7 दिन का रह गया। इस बार तो कुल 4 दिन के ही सांस्कृतिक आयोजन हुए। बाकी स्थानीय प्रतिभाओं को मौका देने के नाम पर पैसे बचाए गए। चार आयोजनों में एक आरके मार्बल ने और एक हिन्दुस्तान जिंक ने प्रायोजित कर दी थी। सिर्फ दो कार्यक्रमों के पैसे निगम के बजट से गए।
पूर्व में मेले की प्रसिद्धि का आलम यह था कि इसके विरोध में शहर भर के व्यापारी आ गए थे कि मेले से दिवाली पर उनकी बिक्री पर असर पड़ता है। मेले को लेकर न तो पार्षदों, न कर्मचारियों में कोई उत्साह दिखा और न ही शहरवासियों में। एक तरह से बोर्ड ने जाते-जाते मेले को औपचारिक बनाकर रख दिया।
पार्षदों में तालमेल नहीं : जानकारों का मानना है कि महापौर कतिपय पार्षदों से घिरी रहीं। उन्हें मिसगाइड करने में अहम भूमिका निभाई। उनके दत्तक के रूप में माने जाने वाले पार्षद ही सारे निर्णय कर रहे थे। उन तक कोई बात ही नहीं पहुंची। पहुंची भी तो पूछने के अंदाज में नहीं बल्कि सिर्फ सूचना के नजरिये से।
प्रतिवर्ष मेले में पार्षदों को अलग-अलग समितियां बना कर जिम्मेदारी सौंपी जाती थी और सभी पार्षद जिम्मेदारी बखूबी निभाते थे और सपरिवार शिरकत करते थे। इस बार मेला गिनती के 10-15 पार्षदों के बीच सिमटकर रह गया। विपक्षी ही नहीं, सत्ता पक्ष के भी कई पार्षद ऐसे रहे जिन्होंने अब तक मेले एक बार आकर झांका तक नहीं।
मनमुटाव और सामंजस्य की कमी : जानकारी के अनुसार महापौर रजनी डांगी ने भी इस बार मेले में रुचि नहीं दिखाई। प्रशासनिक समिति के साथ कलाकार चयन समिति और अतिथि तय समिति के अध्यक्षों तक का कार्यभार खुद के पास रखा। सत्ता के पार्षद ही महापौर व उनके पिछलग्गू पार्षदों से दूर-दूर दिखाई दिए। कई पार्षद निकाय चुनाव में अपनी दावेदारी को लेकर तैयारी और जुगाड़ में भी रहे।