जीवन्ता ने बचाया 4 दिन के 645 ग्राम के नवजात को
विश्व का पहला मामला जिसमें चिकित्सक रहे सफल
उदयपुर। पैदा होते ही ईश्वर ने उसके भाग्य में प्री-मेच्योर बेबी के रूप में पैदा होना और उपर से एक जटिल ऑपरेशन लिख दिया था लेकिन साथ ही उसकी आयु भी लिख दी थी इसलिये वह नन्हीं सी जान मात्र 4 दिन के 645 ग्राम के वजन के साथ भी जीवन्ता चिल्डेªन्स हॉस्पिटल के चिकित्सकों के हाथों बचा ली गई। आज वह जान 2 किलोग्राम वजन की हो कर स्वास्थ्य लाभ कर रही है।
हॉस्पिटल के निदेशक एवं नवजात शिशु विशेषज्ञ डॉ. सुनील जांगिड़ ने बताया कि नवजात के पैदा होने के 4 दिन बाद पता चला कि उसका पेट फट गया है। प्री-मेच्योर डिलीवरी मामलें ऐसे बच्चें विश्व में उनके जीवित रहने का प्रतिशत बहुत कम पाया गया है। विश्व के मेडिकल इतिहास में पहली बार इतने छोटे एवं कम वजनी नवजात शिशु की जीवन्ता चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल उदयपुर ने पेट की सफल सर्जरी कर दुनिया के चिकित्सा इतिहास में एक नया रिकॉर्ड स्थापित किया। .
क्या था मामला : बिजयनगर निवासी मधु और राजकुमार राजपूत दम्पति को शादी के 14 वर्षों बाद माँ बनने का सौभाग्य मिला, लेकिन 29 सप्ताह के गर्भावस्था में मां का ब्लड प्रेशर बेकाबू हो गया था और सोनोग्राफी से पता चला की भू्रण को रक्त का प्रवाह बंद हो गया है, तभी आपातकालीन सीजेरियन ऑपरेशन से शिशु का जन्म 23 जून को कराया गया। शिशु को जन्म के तुरंत बाद जीवन्ता हॉस्पिटल के नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई में शिफ्ट करके नवजात शिशु विशेषज्ञ डॉ सुनील जांगिड़, डॉ निखिलेश नैन एवं उनकी टीम द्वारा शिशु की देखभाल प्रारम्भ की गई। शिशु को सांस लेने में खाफी कठिनाई हो रही थी, उसे तुरंत वेंटीलेटर पर लिया गया एवं फेफड़े फुलाने के लिए फेफड़ों में दवाई डाली गयी.
क्यों करनी पड़ी इस मासूम की सर्जरी : डॉ. सुनील जांगिड़ ने बताया की उम्र के चौथे दिन शिशु का पेट एकदम फूल गया, शरीर ठंडा एवं नीला पड़ने लगा। दिल की धड़कन व ब्लड प्रेशर भी कम होने लगा जांच में पता चला की उसकी आंतें फट गयी है और पूरे शरीर में जहर के फैलने से खून में रक्तपेशिया की संख्या कम भी कम हो गयी है। टीम को लग गया था की अब ज्यादा वक्त नहीं है और दवाईओं से उपचार संभव नहीं है। इस नाजुक स्थिति में ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प रह गया था। शिशु के परिजनों से शिशु के गंभीर बीमारी के बारे में विचार विमर्श किया। इतनी सी नाजुक जान का बड़ा ऑपरेशन करना बेहत खतरनाक था और ऑपरेशन के दौरान जान जाने का भी बड़ा खतरा था लेकिन दम्पत्ति को किसी भी हालत में इस नन्ही सी जान को बचाना था क्योंकि यही उनकी आखरी उम्मीद थी। जीवन्ता हॉस्पिटल के शिशु सर्जन डॉ शैलेंद्रसिंह, एनेस्थेटिक डॉ. अजयसिंह चुण्डावत और समस्त ओटी स्टाफ ने जनरल एनेस्थेसिया देकर शिशु के पेट का जटिल ऑपरेशन किया, जो लगभग डेढ़ घंटा चला।
डॉ. शैलेंद्रसिंह ने बताया कि ऑपरेशन के वक्त शिशु सिर्फ हथेली के आकार जितना ही था। ऑपरेशन के दौरान विशेष छोटे उपकरणों का इस्तमाल किया गया जिसमे कॉटरी ;विद्युत् प्रवाहद्ध मशीन जिसके द्वारा नाजुक पेट को खोला गया ताकि रक्तस्त्राव न हो। स्टमक यानि जठर के पूरी तरह फटने से काला पड़ने लग गया था। उस हिस्से को काट कर अलग किया। स्टमक की स्थिति इतनी नाजुक और खराब थी की टाँके लगाते लगाते ही फट रहा था, मानो गीले पेपर की तरह बिखर रहा हो. बड़ी परेशानियों के बाद फटे हुए जठर को टांके लगाए और पेट की अंदर से पूरी तरह सफाई की गयी। पेट की इतनी खराब स्थिति के बाद लग रहा था कि शिशु का जीवित रहना मुश्किल ही नहीं वरन् नामुमकिन है लेकिन चिकित्सकों ने हार नहीं मानी और आखिरकार उसे बचानें में सफल रहे।
इतने छोटे शिशु में ओपन सर्जरी क्यों होती है मुश्किल : डॉ. सुनील जांगिड़ ने बताया कि ऐसे कम वजनी व कम दिनों के पैदा हुए बच्चें का शारीरिक रूप से सर्वांगिण विकास पूरा नहीं हो पाता है। शिशु के फेफड़े, दिल, पेट की आंते, लीवर, किडनी, दिमाग, आँखें, त्वचा आदि सभी अवयव अपरिपक्व, कमजोर एवं नाजुक होते है. रोग प्रतिकारक क्षमता बहुत कम होती है जिससे संक्रमण का खतरा बहुत ज्यादा होता है और इलाज के दौरान काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे शिशु में ऑपरेशन तकनीकी रूप से बेहद मुश्किल, चुनौतीपूर्ण व जोखिमपूर्ण होता है।
क्या हुआ ऑपरेशन के बाद : ऑपरेशन के बाद टीम को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी की स्टमक के टांको पर कोई तनाव ना पड़े, इसलिए नाक द्वारा स्टमक में नली डालकर उसे लगातार खाली रखा गया। हमें स्टमक के वापस फटने का डर हमेशा रहता था. इतने बड़े ऑपरेशन के बाद दूध देना संभव नहीं था, इस स्थिति में शिशु के पोषण के लिए उसे नसों के द्वारा सभी आवश्यक पोषक तत्व यानि ग्लूकोज, प्रोटीन्स एवं वसा दिए गए. प्रारंभिक दिनों में शिशु की नाजुक त्वचा से शरीर के पानी का वाष्पीकरण होने व दूध न मिलने के वजह से उसका वजन घटकर 590 ग्राम तक आ गया था। यह चिकित्सकों के लिये और जटिल केस बन गया. शिशु के खून की कमी थी, खून में संक्रमण था, खून चढ़ाया गया, एंटीबायोटिक दिए गए। 15 दिनों बाद पहले क्लियर पानी नली द्वारा दिया गया और ये सुनिश्चित किया गया की स्टमक में कोई लीकेज तो नहीं है। बाद में धीरे धीरे नली के द्वारा बून्द बून्द करके दूध दिया गया। 35 दिनों बाद शिशु पूरा दूध पचाने में सक्षम हुआ। 20 दिनों तक शिशु वेंटीलेटर पर रहा। शिशु को कोई संक्रमण न हो, इसका भी विशेष ध्यान रखा गया। ढाई महीने बाद बच्चा मुहं से दूध लेने लगा. चिकित्सकों की टीम द्वारा शिशु की 90 दिनों तक आईसीयू में देखभाल की गयी।. शिशु के दिल, मस्तिष्क, आँखों का नियमित रूप से चेक अप किया गया।
आज 90 दिनों के जीवन व मौत के बीच चले लम्बे संघर्ष के बाद आखिरकार जीवन्ता चिल्ड्रन हॉस्पिटल के चिकित्सकों को सफलता हासिल की। अब उसका वजन 2110 ग्राम हो गया है। वह स्वस्थ है और रविवार को घर जा रहा है।
क्या कहते है एक्सपर्ट : पुणे के प्रोफेसर व हेड निओनेटोलॉजी विभगा के डॉ प्रदीप सूर्यवंशी का कहना है कि लिटरेचर का अध्ययन करने पर पता चला की स्टमक का फटना काफी दुर्लभ बात है। अब तक विश्व में लगभग 200 केस ही सामने आये है और ऐसे मामलो में अत्याधुनिक उपचार के बाद भी बड़े मरीज भी नहीं बच पाते है। इस केस में तो शिशु का वजन मात्र 645 ग्राम था व शिशु के बचने की संभावना 10 प्रतिशत से भी कम थी और इतने बड़े ऑपरेशन के बाद शिशु का जीवित रहना और सामान्य रहना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जो की भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए मिसाल है। दुनिया में इससे पूर्व सबसे कम 730 ग्राम वजनी शिशु का सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल साउथ कोरिया में वर्ष 2014 में सफल ईलाज हो चुका है। भारत में इससे पहले इतने कम वजनी शिशु के स्टमक के सफल ईलाज की कोई रिपोर्ट नहीं है।