बहुत याद आएंगे मेहंदी हसन
झुंझुंनू। मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे। मेहंदी हसन की गाई प्रसिद्व गजल ने यथार्थ का रूप ले लिया है। पूरी दुनिया में अपने चाहने वालों को बिलखता छोड़ आज मेहंदी हसन इस दुनिया से दूर जा चुके हैं।
अब हमें याद रहेंगी तो बस उनकी गायी अमर गजलें व उनकी यादें। उनकी मृत्यु की खबर सुनकर लूणा ग्राम सहित पूरे झुंझुंनू जिले में में शोक की लहर दौड़ गई।
मेहंदी हसन का जन्म 18, जुलाई 1927 को राजस्थान के झुंझुंनू जिले के लूणा गांव में अजीम खां मिरासी के घर हुआ था। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से पहले उनके बचपन के 20 वर्ष गांव में ही बीते थे। मेहंदी हसन को गायन विरासत में मिला। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान भी अच्छे कलाकार थे, इस कारण उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
पहलवानी का भी शौक
लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। मेहंदी हसन के बचपन के साथी नारायण सिंह की उम्र 90 वर्ष होने के उपरान्त भी उन्हे मेहंदी हसन से जुड़ी तमाम बातें याद हैं जिन्हे वो गांव आने वाले पत्रकारों को सुनाते हैं। उन्होने बताया कि बचपन में मेहंदी हसन को गायन के साथ पहलवानी का भी शौक था। मेहंदी हसन अपने साथी नारायण सिंह व अर्जुन लाल जांगिड़ के साथ कुश्ती में दावपेंच आजमाते थे।
मेहंदी हसन के बारे में मशहूर कब्बाल दिलावर बाबू का कहना है कि यह हमारे लिये बड़े फख्र की बात है कि उन्होने झुंझुंनू का नाम पूरी दुनिया में अमर किया। उन्होने गजल को पुनर्जन्म दिया। दुनियां में एसे हजारों लोग है जो उनकी वजह से गजल गायक बने। उनहोने गजल गायकी को एक नया मुकाम दिया।
1978 में मेहंदी हसन जब अपनी भारत यात्रा पर आये तो उस समय गजलों के एक कार्यक्रम के लिए सरकारी मेहमान बनकर जयपुर आए और उनकी इच्छा पर प्रशासन द्वारा उन्हें उनके पैतृक गांव लूणा ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। गांव में सडक़ किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था, जहां वे रेत में लोटपोट होने लगे। उस समय जन्म भूमि से ऐसे मिलन का नजारा देखने वाले भी भाव-विभोर हो उठे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों। उन्होंने बताया कि वे बचपपन में यहां बैठ कर वे भजन गाया करते थे। जिन लोगों ने मेहंदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है- मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।
पाकिस्तान जाने के बाद भी मेहंदी हसन ने गायन जारी रखा तथा वे ध्रुपद की बजाय गजल गाने लगे। वे अपने परिवार के पहले गायक थे जिसने गजल गाना शुरू किया थ। 1952 में वे कराची रेडिय़ो स्टेशन से जुडकर अपने गायन का सिलसिला जारी रखा तथा 1958 में वे पूर्णतया गजल गाने लगे। उस वक्त गजल का विशेष महत्व नहीं था। शायर अहमद फराज की गजल- रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ- गजल से मेहंदी हसन को पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उसके बाद उन्होने कभी पिछे मुडक़र नहीं देखा। इस गजल को मेहंदी हसन ने शास्त्रीय पुट देकर गाया था।
मेहंदी हसन ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी व दादरा बड़ी खूबी के साथ गाते थे। इसी कारण कोकिला कण्ठ लता मंगेशकर कहा करती हैं कि मेहंदी हसन के गले में तो स्वयं भगवान बसते हैं। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है जैसी मध्यम सुरों में ठहर-ठहर कर धीमे-धीमे गजल गाने वाले मेहंदी हसन केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश जैसी राजस्थान की सुप्रसिद्व मांड को भी उतनी ही शिद्दत के साथ गाया है। उनकी राजस्थानी जुबान पर भी उर्दू जुबान जैसी पकड़ है।
मेहंदी हसन की झुंझुंनू यात्राओं के दौरान उनसे जुड़े रहे नरहड़ दरगाह के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारूकी ने बताया कि मेहंदी हसन साहब की झुंझुंनू जिले के नरहड़ स्थित हाजिब शक्करबार शाह की दरगाह में गहरी आस्था है,वो जब भी भारत आये तो नरहड़ आकर जरूर जियारत करते रहें हैं। उनका कहना है कि मेहंदी हसन की याद को लूणा गांव में चिरस्थायी बनाये रखने के लिये सरकार द्वारा उनके नाम से लूणा गांव में संगीत अकादमी की स्थापना की जानी चाहिये ताकि आने वाली पीढिय़ां उन्हे याद कर प्रेरणा लेती रहें।
रमेश सर्राफ धमोरा