कॉलम : अतीत के आईने से
रघुवीर सिंह राठौड, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट अम्पायर
वर्ष 1945 महीना जुलाई का था जब मैंने उदयपुर में बी. एन. स्कूल की तीसरी कक्षा में प्रवेश लिया. उस समय के कुल करीब तीन सौ सभी छात्र होस्टलर्स थे. भीलवाड़ा जिले में एक गांव है राज का देवरिया. उसकी स्थिति आज भी वैसी ही है जैसी उस समय मेरे छोड़कर आने के समय थी. उस समय रणबहादुरसिंह राठौड़ प्रधानाचार्य थे. अनुशासन में बड़े कड़क थे. उस समय की संयमित जीवनचर्या का ही कमाल है की आज भी काम कर रहे हैं. वरना इस उम्र तक तो थक जाते हैं. दिन में तीन बार प्रार्थना होती थी. उस समय का उदयपुर…. रात नौ बजे तो तोप बज जाती थी. यानी शीघ्र शहर के दरवाजे बंद होने वाले हैं. जाना है तो अंदर चले जाओ वरना रात बाहर ही गुजारनी पड़ेगी. उस समय रात को मारवाड़ की ट्रेन आती थी. बस उसके बाद तो सुनसान, जंगल ही जंगल. आज जिसे आप हिरणमगरी •हते हैं, हमने तो वहां वाकई में हिरण, जरख देखे हैं. रात को दरवाजे बंद करके सोते ही इसलिए थे की कहीं जंगली जानवर घर में न घुस जाए. दरवाजा खोलते भी थे तो कोडवर्ड सुनकर ही. उस समय बी. एन. स्कूल के अतिरिक्त एम. बी. कॉलेज था. अभी जहां आरसीए की बिल्डिंग है उसके पीछे की ओर लम्बरदार स्कूल चलता था. रेलवे स्टेशन [राणा प्रताप नगर] के सामने माजी की सराय में फूफाजी की दुकान चलती थी जहां मिठाई अच्छी मिलती थी. स्कूल के सामने बरगद के नीचे एक लाडू मां बैठती थी जो हमें ऋतुओं के अनुसार चणबेर, पेमलीबेर, शकरकंद, अमरूद खिलाती थीं. प्रत्येक सप्ताह के अंत में नाई हॉस्टल में आता था. सूरजपोल पर पहले गोवद्र्धनजी की दुकान थी. अब तो शायद नहीं है. पहली बार जब हमने दाढ़ी बनवाई तो बड़ों की देखादेख हमने भी गाल के अंदर जबान डाल•र गाल बाहर निकाला ताकी उन्हें दाढ़ी बनवाने में आसानी हो तो गोवद्र्धनजी ने बड़े सहज अंदाज में कहा था, हाल मोटो तो वेइजा, अबार गाल कट जाएगा.
भट्टे वालों के ही कुछ घर थे. सिख कॉलोनी तो बहुत बाद में बसी. चाय के लिए चेटक पर कॉफी हाउस था जहां कभी-कभार ही जाना होता था. मिठाई की एक और दुकान थी मुखर्जी चौक में नाथूलाल टोडूमल दया की, जिनकी मिठाइयों का स्वाद आज भी भूला नहीं जाता. पान के लिए सूरजपोल प्रसिद्ध था. जडिय़ों की ओल में एक दुकान और थी जहां के गुलाब जामुन बहुत फेमस थे. हमारे क्रिकेट कोच कहते थे की आज तुम लोगों ने अच्छा बॉल खेली है. चलो मैं तुम्हें बॉल खिला लाता हूं. और वहां हम जाते थे. अशोकनगर रोड पर कजरी टूरिस्ट बंगलो की जगह था पुरानी जेल का खण्डहर. बी. एन. स्कूल से कभी-कभी पढ़कर खेत फलांगते हुए शास्त्री सर्कल से कूदते-फांदते चेटक जाते थे. उस समय क्रिकेट का भी लोगों में शौक था. उस जमाने की सस्ताई तो क्या बताऊं? कुल जमा साढ़े छह हजार रुपए में अभी मैं जहां रह रहा हूं, धाबाईजी की बाड़ी में यह प्लॉट खरीदा. और 42 हजार रुपए में मकान बन भी गया. तीन-चार रुपए किलो घी था. स्कूल और बड़े होने तक हमने निकर और पायजामा ही पहना. पेंट तो कॉलेज में आने के बाद पहनी. पायजामे की सिलाई आठ आने देते थे. प्रतापनगर में अभी जहां कॉटन मिल है वहां पहले ऐरोड्रम था. यहां हवाई जहाज उतरते थे. निर्माण के लिए पत्थर या तो बैलगाड़ी में आते थे और या फिर आते थे रेलगाड़ी में जो नेहरू हॉस्टल, नोखा, तीतरड़ी होते हुए चलती थी जिसमें पत्थर लाए जाते थे. ए• छोटा इंजन और दो डिब्बे. बापू बाजार में तो सूअर पड़े रहते थे. बिलकुल गंदा नाले जैसा था.
उस समय की फेमस थी एमकेटी टीम यानी महाराज कुमार की टीम. जिसमें होते थे तीन-चार प्रिन्स, तीन-चार प्रोफेशनल्स वगैरह. बांसवाड़ा के हनुमंत सिंह और सूर्यवीरसिंह, डूंगरपुर के राजसिंह, मेवाड़ के भगवतसिंह, प्रोफेशनल्स में सलीम दुर्रानी, वीनू मनकड़, पॉली उमरीगर, विजय मांजरेकर, सुभाष गुप्ते, अर्जुन नायडू आदि. भगवतसिंहजी की एक ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो पाई रणजी जीतने की. सात बार फाइनल खेले लेकिन जीत नहीं पाए. बीएन ग्राउण्ड पर भी रणजी मैच हुए थे. बाद में एमबी ग्राउण्ड पर खेला जाने लगा. मेरा यही मानना है की उपरवाले में आस्था और विश्वास रखो, सफलता निश्चित है. उसी की कृपा है की एक छोटे से गांव से आने वाला मैं आज अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा हूं.
(जैसा उन्होंने उदयपुर न्यूज़ को बताया)
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