उदयपुर. हालांकि फिल्मों, टीवी धारावाहिकों, एक्टिंग आदि के लिए थियेटर जरुरी माना जाता है लेकिन आज के जमाने में व्यावसायिकता इतनी हावी हो गई है कि एकदम से थियेटर कोई ज्वाइन नहीं करना चाहता. अगर इस क्षेत्र में लंबा चलना है तो थियेटर करना ही चाहिए.
आज भी ऐसे कई कलाकार हैं जो पहले एक-दो सीरियल में काम कर लिया फिर महसूस हुआ कि थियेटर भी जरुरी है तब थियेटर की क्लास ज्वाइन कर ली, लेकिन हम उसे थियेटर करना नहीं कहते क्यूंकि थियेटर तो एक कमिटमेंट हैं. ये बात सही है कि इस क्षेत्र में पैसा नहीं है. इसीलिए हर कोई पैसा कमाने सीधे कैमरे के सामने जाना चाहता है.
यह मानना है उदयपुर के प्रख्यात थियेटर कलाकार शिवराज सोनवाल, एनएसडी से प्रशिक्षण प्राप्त भूपेश पंड्या और पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में ‘धरोहर’ संभाल रहे दीपक दीक्षित का. इन कलाकारों ने उदयपुर न्यूज़ के साथ एक विशेष भेंट में ये विचार व्यक्त किए. ये सभी कलाकार यहां २० जून से शुरू हुई १० दिवसीय थियेटर कार्यशाला में के लिए एकत्र हुए हैं.
रंगमंच जीवित रहेगा, हमेशा रहेगा क्योंकि इसका उपयोग हर जगह है. चाहे आप बिजनेस में हों या कहीं नौकरी में या फिर घर पर भी. थियेटर में जो कुछ सिखाया जाता है, वह आपके दैनिक जीवन में उपयोगी सिद्ध होता है. शिवराज का मानना है कि सिनेमा के मनोरंजक रुपहले पर्दे से टीवी, कंप्यूटर, लैपटॉप और फिर मोबाइल में कब युवा चला गया, समय का पता ही नहीं चला लेकिन रंगमंच हजारों सालों से जिंदा है और आगे भी रहेगा. इसका कारण इसकी सामूहिकता और सामाजिकता है.
उन्होंने कहा कि आज रंगमंच का इस्तेमाल सिनेमा तक पहुँचने की सीढ़ी के रूप में किया जा रहा है, जो बहुत गलत है. रंगमंच के अभिनेता तो वो हैं जो रंगमंच का उपयोग रंगमंच के लिए करते हैं, मानवीय मूल्यों के लिए करते हैं, वे मूल्य जो रंगमंच की बुनियाद हैं. सच्चाई तो यही है कि हर कलाकार वह सिनेमाई भव्यता प्राप्त करना चाहता है, इसी का परिणाम है कि अब किसी भी चीज में वह कमिटमेंट नहीं मिलता जो वर्षों पूर्व हमें मिलता था.
भूपेश ने बताया कि आज का युग अर्थ प्रधान हो गया है. थियेटर इज़ एन आर्ट. अगर आज टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल का युग है तो रंगमंच का वह युग वापस लौटकर आएगा. रंगमंच को अच्छा स्थान दिलाने के लिए सरकारी सहायता पर वे कहते हैं कि आप बांग्ला, गुजरती, मराठी क्षेत्रों में जाएँ, वहां न सिर्फ थियेटर हाउसफुल रहते हैं बल्कि वहां टिकट ब्लैक में बिकते हैं, आपको यह बात आश्चर्यचकित करती होगी, लेकिन यह बिलकुल सही है. बांग्ला भाषी क्षेत्रों में व्यक्ति के स्टेटस के पता इस बात से लगाया जाता है कि उस घर के कितने लोग थियेटर से जुड़े हैं? वहां थियेटर की काफी सम्मानजनक स्थिति है. यहां कल्चरल पालिसी के नाम पर कुछ नहीं है. संबंधित विभाग के मंत्री हैं तो वे सिर्फ मेलों तक ही सीमित रह जाते हैं.
दीपक दीक्षित ने बताया कि सीसीआरटी के पाठ्यक्रम में अब थियेटर को भी शामिल कर लिया गया है. यहां जब डेढ़ महीने के प्रशिक्षण में चार दिन की क्लासेस होती हैं तो प्रशिक्षण के अंत में प्रतिभागियों का यही मानना होता है कि डेढ़ महीने के प्रशिक्षण में एक महीने की क्लासेस थियेटर की होनी चाहिए. प्रतिभागियों में अच्छे-अच्छे पीएचडी धारक, लेक्चरर आदि होते हैं जिनके यहां से जाने के बाद आने वाले पत्रों से पता चलता है कि वे थियेटर की क्लास कितनी मिस करते हैं.