पुस्तक में समेटे ‘शहादत के सौ साल’
खामोश मानगढ़ की खुली जुबान
आज़ादी के लिए आदिवासी सपूतों को गोविन्द गुरु के रूप में संत का नेतृत्व क्या मिला, मानो उन्हें जोश, जज़्बे और जुनून की कभी खत्म न होने वाली ऊर्जा का खज़ाना मिल गया। इस नेतृत्व ने अंग्रेजी हुकूमत और तत्कालीन शासक की नींदें उड़ा दी।
मौत को गले लगाने और नेतृत्वकर्ता संत के फरमान पर जान कुर्बान करने की मिसाल आज आज़ाद भारत के युवाओं और बुजुर्गों के लिए प्रेरणा तथा भारत को गुलाम बनाने वाले शासक तत्वों के लिए खौफ का मंजर ताजा करती है। यह सब कुछ है ‘शहादत के सौ साल’ पुस्तक में।
जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग के बैनर तले प्रकाशित उक्त पुस्तक ‘मानगढ़ धाम: राजस्थान के जलियांवाला’ के ऐतिहासिक, ,आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलु का एक-एक बिन्दु साकार करती हुई अतीत के पन्नों पर गौरवशाली घटना का जीवंत चित्रण करती है।
अध्यात्म से आजादी की ओर: इस किताब का सबसे अहम पहलु महान आध्यात्मिक संत गोविन्द गुरु के नेतृत्व में उनके जीवन की आध्यात्मिक शुरूआत और क्रांतिकारी सेनानी के रूप में अंतिम सांस तक मातृभूमि के लिए संघर्ष करते रहने तथा देशभक्त सपूतों की स्व-स्फूर्त फौज तैयार करने का वर्णन है। पुस्तक में गोविन्द गुरु के व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े कई अनछुए पहलु समाहित है जो पाठक को अगला पन्ना पलटने की जिज्ञासा जगाते हैं। आध्यात्मिक तपस्या से जीवन का आरंभ करने वाले गोविन्द गुरु का राष्ट्रतप युक्त निर्वाण पुस्तक की प्रस्तावना को प्रभावी बनाते हैं।
मिनट-टू-मिनट, लाईव मानगढ़: पुस्तक के प्रधान संपादक महेन्द्रजीतसिंह मालवीया के विशिष्ट प्रयासों से राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से जुटाए गए ऐतिहासिक दस्तावेजों और अदालती सबूत पुस्तक की प्रमाणिकता को साबित करते हैं। अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेजों में उन सबूतों को प्राथमिकता से पुस्तक में शामिल किया गया है जो सत्रह नवंबर 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर विदेशी हुकूमत के इशारे पर गोविन्द गुरु के नेतृत्व में यज्ञ हवन के लिए जमा देशभक्त सपूत गुरुभक्तों पर तोपों और बंदूकों की गोलियों से किए गए हमले के बाद मानगढ़ की पहाड़ी के रक्तस्नान के मंजर का वर्णन रोंगटे खड़़े करता है। तेरह से सत्रह नवंबर तक वहा तैनात अंग्रेजी फौंजों के मुखियाओं द्वारा अपने उच्चाधिकारियों को भेजी गई रिपोर्ट को वर्तमान संचार क्रांति के अनुरूप लाईव प्रस्तुति किताब की रोचकता को बढ़ाती है।
यायावर तजुर्बों की ताज़ा तस्वीर : संत गोविन्द गुरु का जन्म बंजारा परिवार में हुआ था और उनका पूरा जीवन यायावरीय रहा। पुस्तक के लेखन और संपादन का जिम्मा प्रधान संपादक महेन्द्रजीतसिंह मालवीया ने दो युवा ऊर्जावान लेखकों जिला सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी कमलेश शर्मा व माध्यमिक शिक्षा विभाग के शैक्षिक प्रकोष्ठ अधिकारी प्रकाश पण्ड्या पर डाला। किताब की एक खूबी यह भी है कि दो सदस्यीय छोटी लेकिन अनुभव विराट टीम ने उन तमाम गांवों और स्थलों का दौरा किया जो गोविन्द गुरु की जीवंत स्मृतियों से जुड़े हैं। पुस्तक में यात्रा वृत्त शैली की झलक इस बात को प्रमाणित करती है कि लेखकों ने भी यायावरिय तजुर्बे की तस्वीर कुशलता से पेश की है। ‘कलम उनकी जय बोल’ स्तंभ के साथ ‘महज लहू नहीं था…’, ‘मानगढ़ एक पृष्ठ सुनहरा..’ और ‘चला चला मैं चंदा को कांधे पर धरकर…’ गीत किताब के ओज और रोमांच में प्राण फूंकते हैं।
कालजयी सूत्रों का समावेश : संयुक्त राष्ट्र संघ और राष्ट्रीय कार्यक्रमों की सूत्रधार एजेंसियों द्वारा इक्कीसवीं शताब्दी में महसूस की जाने वाली विश्वकल्याण तथा राष्ट्रीय प्रगति के महत्त्व पर केन्द्रीत योजनाओं, कार्यक्रमों और परिस्थितियों की गोविन्द गुरु के नेतृत्व में 125 साल पहले स्थापित परंपरा का उल्लेख इस किताब की सर्वग्राह्यता को प्रमाणित करता है। गोविन्द गुरु द्वारा स्थापित संस्था संप सभा और इससे पूर्व राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में कायम की गई धूणियों के पीछे निहित मनोविज्ञान तथा प्राणीमात्र के हित के कालजयी सूत्रों की सचित्र प्रस्तुति पुस्तक के प्रमुख आकर्षण में से एक है। लेखकीय टीम ने पुस्तक में कई ऐसे विशिष्ट पहलुओं को सजीव शैली में प्रस्तुत किया है। लेखकीय टीम का गोविन्द गुरु की जीवन यात्रा से जुड़े स्थलों का दौरा कर आज़ादी की अलख जगाने के लिए गांव-गांव में आज भी गोविन्द गुरु की विद्यमान निशानियों का सचित्र समावेश प्रत्यक्ष उपस्थिति का आभास देता है।
Shree Guru Govind Pahela Mansinh Hurabhai Pargi Maharaja Thai Gaya