udaipur. कविता समाज की आलोचना है और छंद कविता का अनिवार्य लक्षण नहीं है। सौंदर्य की महत्तम अवस्था अलंकार विहीन होने में है। केवल अलंकरण से कविता नहीं होती। कवि जीवन के सारे कर्म करते हुए भी वह अपनी कविता के लिए शब्द एवं विषयों की तलाश कर लेता है। ये विचार विख्याहत साहित्यलकार प्रो. अरुण कमल ने व्यक्त किए।
वे सुविवि के हिन्दी विभाग की संस्था ‘समग्र‘ द्वारा आयोजित विस्तार व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंनने कहा कि कवि वह किसी वर्जना में विश्वास नहीं करता, हर अनुभव के बारे में लिखता है। कविता की भाषा आम जन की भाषा होती है। बोलते हुए कविता में ऐसी शक्ति भरी जाती है कि वह जीवन का मंत्र बन जाती है। उन्होंने बताया कि कविता में सांस की लय अंत तक चलती है, उसे पकडऩे पर ही कविता समझ में आती है। मुझे मेवाड़ क्षेत्र से शांत होना, पोल खुलना, ठंडा करना आदि ऐसे नए मुहावरे मिले, कवियो को ऐसे ही नए मुहावरों की तलाश रहती है। कवि नए शब्दों एवं मुहावरों की तलाश में उसी प्रकार रहता है जैसे शेर अपने शिकार की।
उन्होंने अपनी कविता ‘धार‘ एवं ‘घोषणा‘ का वाचन किया। विद्यार्थियों के प्रश्नो का जवाब देते हुए उन्होंने बताया कि आज हम अविश्वास की हद पर पहुंच रहे हैं। आज मनुष्य का मनुष्य पर से विश्वास उठता जा रहा है, कवि ऐसे ही समाज के बारे में लिखता है। कविता इत्र है, अनेक क्विंटल फूलों का सत है। इसका फार्मूला या सूत्र तुरंत पकड़ में नहीं आता है। कविता बराबरी, दोस्ती एवं जीने की भावना व्यक्त करती है। इससे पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. माधव हाड़ा ने अतिथियों का स्वागत किया। अतिथि परिचय विभाग के शोधार्थी पुखराज ने दिया।