चिंतन
हर व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन को संरक्षित, सुरक्षित व निरंतर विकासशील बनाये रखना चाहता है और इसे अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानकर ही अपना एक-एक कदम आगे बढ़ाता है।
ऎसे में हर आदमी अपने लिए अनुकूलताओं को देख व अनुभव कर दायरों का निर्धारण कर लेता है। वह जो भी हरकतें या चहलकदमी करता रहता है वह भी उन्हीं परिधियों में रहकर। आदमी को जिस बात से सबसे ज्यादा डर सताता है अथवा सताने की आशंका बनी रहती है वह है असुरक्षा की भावना। चाहे वह असुरक्षा, शरीर, नौकरी-धंधा, घर परिवार, रुपए-पैसों, पद-प्रतिष्ठा को लेकर हो या फिर और किन्हीं और बातों की। आदमी अपने आपको हमेशा सुरक्षित रखने और भविष्य की असुरक्षा जैसी तमाम संभावनाओं को समाप्त करने के लिए अपनी सुरक्षित परिधियों के बंकर या ऎसे ही दूसरों के द्वारा संरक्षित दड़बों में आश्रय पाकर उन्हीं में उन्मुक्त विचरण व जीवन निर्वाह के प्रति समुत्सुक होता है। आदमी चाहता तो है कि जमाने भर की सुख भरी हवाएँ और सुकून उसकी तरफ आते रहें और ताजगी देते रहें मगर दूसरी ओर वह दड़बे से बाहर निकलना भी नहीं चाहता, सिर्फ खिड़कियों से बाहर की ओर झाँकता जरूर रहता है। लगातार जमाने की तरफ ताक-झाँक के बावजूद उसे सुकून नहीं मिलता। वह निरंतर कुलबुलाता है लेकिन बाहर निकलने की बात कहने या सुनते ही उसकी टें निकलने लगती है।
आदमी को भगवान ने इस धरा पर भेजा ही इसलिए होता है कि पूरे जमाने को अपनी नज़रों से देखे, निहारे, आनंद ले व दे तथा अनुभवों व अमर कीर्ति लायक काम करके लौटे ताकि भगवान को भी गर्व का अहसास हो अपनी मानुषी सृष्टि पर। हम विराट विश्व और आक्षितिज पसरी हुई दुनिया की कहाँ बात करें, आदमी अपने सारे सामथ्र्य को भुला बैठा है। वह असुरक्षा तथा हीनता की भावनाओं से इस कदर घिर गया है कि उसका हिरणी मन कछुवा छाप हो चला है। पूरी जिंदगी परम्परा और रूढ़ियों की दीवारों के बीच आदमी खुद भी अपनी चहारदीवारी बना कर उसी में नज़रबंद हो गया है। खूँटी से बँधा आदमी इन्हीं परिधियों की आत्म स्वीकृत कैद में रहकर वह सब कुछ पाना चाहता है जो उसे अपने दड़बे में दुबकते हुए बाहर की ओर दिखता है। आदमी की जिंदगी में यथास्थितिवाद का यह दौर ही ऎसा है जो आदमी की असीमित क्षमताओं व अपार ऊर्जाओं का कभी उपयोग नहीं होने देता और आदमी को बाँध देता है सुनहरे अवसरों की प्राप्ति या जीवन के विराट फलकों से मिलने वाले खट्टे-मीठे अनुभवों से। आदमी ईश्वर का प्रियतम अंश व अनंत सामथ्र्य का सम्राट होने के बावजूद कुछ नहीं कर पा रहा है। यह उसकी मूर्खतापूर्ण आत्म स्वीकृत विवशता नहीं तो और क्या है ? बहुसंख्य लोग इसी यथास्थितिवाद के शिकार होकर जड़ता को प्राप्त हो गए हैं। जो जहाँ है उसे ही संसार मानकर इन्द्रधनुषी भ्रम में मोह-माया भरे संसार में लिपटा हुआ है। उसे यह भान ही नहीं है कि संसार बहुत विराट व अनंत है। इनके साथ ही उस किस्म के लोग भी खूब हैं जैसे वह चाहता है। सच तो यही है कि उसके आस-पास डेरा डाले बैठे लोगों से कई गुना अच्छे लोग और भी खूब सारे हैं।
दुनिया मनभावन, सुनहरी और सुकून देने वाली है जिसे जानने के लिए कोलम्बस की तरह जो लोग गृह मोह ( होम सिकनेस ) त्याग कर निकल पड़ते हैं वे हसीन जमाने को पा लेते हैं और असल में इन्हीं लोगों का जीवन सफल व धन्य है। पर आदमी, इस प्रजाति को समझना टेढ़ी खीर है। बात घर-दफ्तर या दुकान, नौकरी धंधे या कुर्सी, अथवा अपने आभा मण्डल की हो या फिर अपने क्षेत्र की, ज्यादातर लोग कबूतरों की तरह होम-सिकनेस से इस कदर घिरे हुए हैं कि इनके लिए उनकी परिधियों के आगे संसार का कोई मायना ही नहीं रह गया है।
बँधी-बँधायी दीवारों और खिंची हुई लकीरों से लोग बाहर निकलना ही नहीं चाहते। ऎसे में पूरी जिंदगी असुरक्षा की भावना से त्रस्त रहते हुए ये अपने दड़बों में ही घुटते रहते हैं और जमाने को जानने व भोगने की मरी हुई आशाओं व आकांक्षाओं के साथ परलोक सिधार जाते हैंं।
इस किस्म के लोग दुनिया के अन्य हिस्सों की ही तरह हमारे आस-पास भी खूब हैं। हो सकता है हम भी उन्हीं में शुमार हों, जो कि जैसे हैं,जहाँ हैं वैसे और वहीं बने रहने को सुरक्षित समझाने के आदि हैं। बात अपने जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ी हो सकती है। लोग एक कुर्सी तक छोड़ना नहीं चाहते, फिर स्थान व क्षेत्र या पद, घर या और कुछ बदलने की तो बात ही कुछ और है। खूब सारे लोग ऎसे हैं जो जिंदगी भर एक ही जगह एक ही कुर्सी या दफ्तर/प्रतिष्ठान में रह कर जिंदगी निकाल देते हैं और वह वहीं से रिटायर्ड भी हो जाते हैं जहाँ नियुक्ति पायी होती है। ऎसे लोग भी अनगिनत हैं जिन्हें वहाँ से हिलाने लगें तो वे दुःखी मन से सब कुछ छोड़-छुड़ा कर पलायन करने लग जाते हैं। खूब लोग ऎसे भी हैं जो अपनी किरकिरी करा कर भी, जमाने की पसंद न होते हुए भी सड़ांध, रुढ़ियों व परम्पराओं के दंश भोगते हुए उसी एक जगह अनमने से उपेक्षित होकर भी पड़े रह कर समय गुजार देते हैं।
जीवन के लक्ष्यों को पाने और जमाने को जानने के लिए जरूरी है कि हम कबूतरिया होम सिकनेस को त्यागें तथा अपनी परिधियों व खोल को छोड़कर पूरे जमाने को अपनी कर्मभूमि मानते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्शो को साकार करें तभी जीवन का महत्त्व है वरना अगली योनि में कबूतरों के स्वरूप में जमाना आपको देखने और नाकारा गुटर-गूँ सुनने के लिए आतुर बना ही हुआ है।
– डॉ. दीपक आचार्य