Udaipur. दु:ख किसके जीवन में नही आता। गरीब हो या अमीर, सन्त हो या संसारी, छोटा हो या ब$डा, सबकी जिन्दगी में दु:ख अवश्य आता है, जिन्दगी में सबको दु:ख का सामना करना पडता हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई दु:ख से निपट लेता है, और किसी को दु:ख निपटा देता है। अगर मेरा कहा मानो तो दु:ख में घबराना नही और सुख में इतराना नही।
कहने का तात्पर्य दु:ख में कुलना नही, सुख में फुलना नही, दिन कभी भी बदल सकते है, क्योंकि अच्छे दिन अब रोज कम होते जा रहे है। सुख सुई की नोंक के बराबर है और दु:ख पहाड़ जितना बडा़ हैं। ये विचार अन्तर्मना मुनि प्रसन्न सागर ने सर्वऋतुविलास स्थित दिगम्बर जैनालय में आयोजित प्रात:कालीन धर्मसभा में व्यक्त किए। मुनिश्री ने धर्मसभा में उपस्थित श्रद्घालुओं को इंगित करते हुये कहा कि सब लोग प्रतिदिन भगवान की वाणी को सन्त के मुख से सुनने इसलिये आते है कि हमारे दु:खों का क्षय हो। विषमताओं से भरे हुए सन्तप्त मन को शान्ति और सुख का सम्बल मिलें और हमारी उब भरी जिन्दगी में सुख का सूरज उदय हो। इस कलियुग में संसार में सबसे बडा़ सुरक्षाकर्मी हमारे जीवन में कोई है तो वह वह हमारा पुण्य है। केवल पैसा ही मत कमाओ, पैसे के साथ प्रतिष्ठा और पुण्य भी कमाओ। पैसा तो वेश्या भी इकट्ठा कर लेती है। पैसा इस लोक में काम आ सकता है लेकिन परलोक में काम आने वाला नही है। पैसा श्म शान घाट तक पहुंचा सकता है, लेकिन मोक्ष में नही पहुंचा सकता। पुण्य मील का पत्थर हो सकता है पर परमात्मा तक पहुंचने के लिए धर्म की आवश्यकता है। पुण्य को मार्ग बनाकर धर्म के सहारे परमात्मा की मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। हमारी विपरित मान्यतायें और मिथ्या दृष्टि हमें अज्ञान और मिथ्यात्व की ओर ले जाती है। परमात्मा को नमस्कार सम्यक होना चाहिए। लेकिन हमारे नमस्कार में हमारी आवश्यकताओं और इच्छाओं का अम्बार होता है। हमने प्रभु के नमस्कार में हमेशा अपेक्षाएं रखी है जबकि सम्यक् दर्शन इच्छाओं, कामनाओं से बहुत दूर है। परमात्मा तुम्हें सब कुछ देना चाहता है, मगर तुम कुछ मांग कर अपने आपको छोटा कर लेते हो। इसीलिये जब मांगना ही है तो परमात्मा से परमात्मा मांग लो। जब तुम परमात्मा से परमात्मा ही मांगोगे तो परमात्मा मिले या न मिले, मगर बहुत कुछ तो मिल ही जायेगा। हमें किन जैसा बनना है? हमें जिन जैसा बनना है- जो राग, द्वेष, क्रोध, माया मोह से परे हो गये है, ऐसे जिनेन्द्र जैसा बनना है। इसीलिये देव, शास्त्र, और गुरु पर कभी संदेह मत करना, जरा सा भी संदेह तुम्हें मोक्ष मार्ग से दूर कर देगा।
मुनि ने बताया कि सन्त तुम्हारी समस्याओं की पूर्ति है, वे तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान है, संत समाधि के स्वर हैं, नर और नारायण के मध्य में हैं। यदि संतों से कुछ पाना है तो अपने अस्तित्व को उनके चरणों में विलीन करना आवश्यक है। बूंद, बूंद रह कर यह नही जान सकती की सागर क्या है? सागर का परिचय चाहिये तो बूंद को अपना अस्तित्व मिटाना पड़ता है। इसी तरह परमात्मा को पाने के लिये अपने अस्तित्व का अंहकार लेकर परमात्मा के मन्दिर में कभी मत जाना। अंहकार का अभाव ही आनंद है। अंहकार की मृत्यु ही आनंद का जीवन है। जहां अंहकार होगा वहां आनंद नही रहता। क्योंकि अंहकार तो स्वयं अपने आप में दु:ख का कारण है। जैसे प्रकाश आता है तो अन्धकार मर जाता है। अंहकार मनुष्य को विरासत में मिलता है, छोटा बच्चा भी अंहकार में जीता है, मां यदि बच्चे को दुत्कार कर क्रोध में दूध पिलाती है, तो बच्चा मुँह फेर लेता है, वह कहना चाहता है कि पिलाना है तो प्रेम से पिलाओं। जहर मत पिलाओ। अत: अंहकार ही जीवन की मूलभूत समस्या है।
प्रचार-प्रसार मन्त्री महावीर प्रसाद भाणावत ने बताया कि कर्नाटक प्रान्त के निवासी भारतीय प्रशासनिक सेवाधिकारी श्री मनोज जैन ने मुनिश्री के पाद प्रक्षालन का लाभ लिया और दीप प्रज्ज्वलन किया। मनोज जैन ने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि जैन समाज अल्पसंख्यक है, असुरक्षित है। अत: अपने बच्चों को अधिक से अधिक उच्च शिक्षा दिलाकर प्रशासनिक सेवा में भेजने का यत्न करें। क्योंकि राजनीति में हमारा भविष्य कमजोर है तथा व्यापार सभी करते है पैसा भी खुब कमाते है, लेकिन अच्छी शिक्षा प्राप्त करना भी जरुरी है। मुनि पीयूष सागर ने अन्तर्मना प्रसन्न सागर के उपदेश का सारगर्भित संक्षिप्तीकरण करते हुये सबको सुनाकर उपस्थित श्रद्घालुओं को प्रभावित किया।