Udaipur. प्रत्याशी इस बार अंतिम समय तक जूझते ही रहे। कभी अपनी ही पार्टी के वरिष्ठजनों से तो कभी सामने वालों से। अब अपनों से जूझें कि सामने वालों से। इसी में समय कब निकल गया। पता ही नहीं चला और मतदान का दिन आ गया। सुबह इनके भाग्य का फैसला होगा। बहुत आगे जाएंगे या धड़ाम से गिर पड़ेंगे?
कांग्रेस प्रत्याशी को तो अपने चुनावी मंडल में भी कमंडल उठाने वाले मुसद्दीलालों तक को भर्ती करना पड़ा जिन्हें भी अंतिम समय में हटाना पड़ा। उनका नाम प्रत्याशी के लिए घोषित होते ही दूसरे दिन नामांकन भरा। फिर दो दिन लगे यह समझने में कि किसको साथ लेना है, किसको छोड़ना है। चुनाव संयोजक के रूप में वरिष्ठ नेता को ले लिया। उनकी बताई गई वोटर लिस्ट पुरानी आ गई जो चुनाव के एक दिन पूर्व सुबह ताजा लिस्टें आई। बूथ वालों को फोन किया कि लिस्टें आ गई है, ले जाओ। कांग्रेस की ओर से मतदाता पर्चिंयां तक नहीं पहुंच पाई।
स्वयंभू मीडिया सेंटर मालिक भी कोशिश पूरी करते रहे कि जैसे तैसे हो, अपनी भी दाल गले लेकिन दाल गल नहीं पाई। कारण स्पष्ट कि बिन पैंदे का लोटा जैसी स्थिति है। नाव में वजन जिस तरफ, अपन भी उस तरफ। किसी ने गांठा तक नहीं। चुनाव कार्यालय जा-जाकर आते रहे और अपने ही सेंटर से चुनावी विज्ञप्तियां जारी करवाते रहे। फोटो भी सिर्फ वे ही भेजे जाते रहे जिनमें खुद नजर आते हों। दिल्ली आलाकमान से आए नेता को प्रेस से वार्ता कराने में ही उलझे रहे। मंच पर उनके साथ बैठकर फोटो खिंचवा लिया और मान लिया कि अपना काम तो हो गया।
ग्रामीण क्षेत्र में परिवारवाद का आरोप झेल रही प्रत्याशी अपने काम में लगी रहीं। उनके पुत्र भी बराबर काम करते रहे लेकिन बागी का खौफ मंडराता रहा। इनके साथ लगे ‘मिश्राजी’ जैसे कार्यकर्ताओं का आलम यह कि विधायक वे खुद बन गए हों। किसी से कोई बात तक नहीं। हम हैं तो क्या गम है के जीवन में ही जीते रहे। उदयपुर शहर के भाजपा प्रत्या शी भी समाजों की बैठकें लेने में लगे रहे। व्यकक्तिगत रूप से समाजों की बैठक लेने के बजाय सामूहिक रूप से बात कर लेते। कम से कम जातिवादी राजनीति करने का आरोप तो हट जाता। खैर अब सुबह मतदान करना है। मतदाता की खामोशी किसी आहट तक का अहसास नहीं करा रही। ऊंट किस करवट बैठेगा, 8 दिसंबर को ही पता चलेगा।