जीवन के हर पहलू को वासंती उल्लास देने में पर्व-त्योहारों का ख़ास महत्व है। हर उत्सव के साथ जुड़ी हुई लोक रस्म जन मन से लेकर परिवेश तक में आनंद का दरिया बहा देती है। दीपावली भी ऎसा ही त्योहार है जब पूरा परिवेश लोक लहरियों पर थिरक उठता है और मन मयूर नाचने लगता है। लोक जीवन की इन तमाम रस्मों में ‘दीवाली आणा’ और ‘मेरिया’ की परम्पराएं हर किसी को आह्लादित करती हैं।
राजस्थान के ठेठ दक्षिणी हिस्से मे मालवा और गुजरात की लोक संस्कृतियों के साथ आदिवासी संस्कृति का संयोग सांस्कृतिक भगीरथी का दृश्य पैदा करता है। दीपावली पर वागड़ अंचल के नाम से मशहूर इस पूरे वनांचल में विभिन्न समुदायों में दीवाली आणा व मेरिया की पारंपरिक झलक पूरे यौवन पर देखने को मिलती है। इस अंचल में पीहर से बहू को लिवा लाने की परंपरा को आणा (गौना) कहते हैं। नवविवाहिता को दीवाली के दिनों में पीहर से लिवा लाने के लिए किसी भी प्रकार के मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती है इसलिये इन दिनों दीवाली आणा होता है। वागड़ समुदाय के लिए दीवाली और दीवाली आणा का रिश्ता सदियों से चला आ रहा है।
दीपावली के दिनों में दीवाली आणा 10-15 दिन में कभी भी हो सकता है। इसमें वर के साथ जाने वाले सगे-सम्बंधियों व परिवार वालों का वधू पक्ष द्वारा पूरी मान-मनुहार के साथ स्वागत किया जाता है। इन पामणों (मेहमानों) को जिमाने के साथ ही वस्त्रादि उपहार भेंट किए जाते हैं। दीवाली आणा के साथ ही मेरिया की परम्परा भी प्राचीनकाल से चली आ रही है। मेरिया गन्ने के डंठल, तोमड़ा (लौकी की प्रजाति व आकार का ही शाक), रूई व कपड़े तथा मिट्टी से बनाया जाता है। इसके शीर्ष पर लगी कपड़े व रूई की बत्तियों पर तेल डालकर इसे मशाल की तरह प्रज्वलित किया जाता है। इसी मशाल को ‘मेरिया’ कहा जाता है।
दीपावली के दिन यह मशाल भगवान के साथ ही गायों को दिखायी जाती है व घर के हर कोने में इसकी रोशनी बिखेरी जाती है। मान्यता है कि इससे घर के तमाम अंधेरे व अनिष्ट समाप्त हो जाते हैं व गृहस्थी को नई रोशनी मिलती है। दीवाली के दिन कहीं रात को और कहीं दीवाली के अगले दिन भोर में मेरिया की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। इसमें पंचवर्तिका मेरिया (मशाल) को वर हाथ में लेता है व इस जलते हुए मेरिये पर वधू तेल पूरती है। फिर वधू के हाथ में मेरिया थमाकर वर तेल पूरता है। इसके बाद वर-वधू के हाथ में थामे हुए मेरिया में नाते-रिश्तेदार तेल पूरते हैं। नव विवाहित युगल मेरिया लिये सगे-संबंधियों के वहां जाते हैं। कई स्थानों पर पति ही मेरिया लेकर जाता है। इस पर तेल पूरा जाता है। यह तेल स्नेह धार के साथ उजियारे का प्रतीक होता है।
कई क्षेत्रों में गाँव या जाति-बिरादरी के लोग इकट्ठा होकर नव विवाहिता युगल (जिनके वहाँ दिवाली आणा होता है) के वहाँ जाते हैं। गाँव में जितने भी घरों में दीवाली आणा होता है वहां ये समूह पहुँचता है। इन गाँवों में दिवाली के अगले दिन तड़के स्नान करके नए कपड़े पहनकर दीवाली आणा वाले दुल्हे के घर जाते हैं। वहाँ पर गाँव के सभी लोग इकट्ठे होते हैं। इसके बाद गाँव में जितने भी दुल्हे हैं उनके घर-घर जाकर मेरजू (मेरिया) पूरते हैं। दुल्हे के घर के चारों ओर इतने लोग होते हैं कि किसी छोेटे-मोटे सामाजिक-पारिवारिक उत्सव का माहौल थिरकने लगता है। इस दौरान् सभी की निगाहें दुल्हन की झलक पाने को उत्सुक रहती हैं। दुल्हा पाँच दिवण वाला मेरजू (पाँच बत्तियों वाला मेरिया) लेकर आँगन के बीचाें-बीच खड़ा हो जाता है। इसके चारो ओर आदमी खड़े रहते हैं। इसके बाद दुल्हन को लेकर लड़कियां व औरतें लेकर घर के बाहर आती है। दुल्हन के बाहर आते ही गाँव के युवक-युवतियां पटाखों की बौछार चालू कर देते हैं। लजायी दुल्हन पाँच बार तेल पूरती है। इसके बाद भाग कर घर में चली जाती है। इस तरह से सुबह 7 बजे से 12 बजे तक पूरे गाँव में जितने भी दुल्हे हैं उनके घर जाकर गांव वाले तथा नाते-रिश्तेदार मेरजू पूरते हैं। ग्रामीणजन हुड़ा व गीत गाते हुए पूरे गाँव में दुल्हों के मेरजू पूरने के लिए घूमते हैं।
इसके बाद अपराह्न में गांव के मुखिया या सरपंच के घर ग्रामीणों का समागम होता है। यह एक प्रकार से स्नेह सम्मेलन होता है। इसमें सभी ग्रामीणजन एकत्र होते हैं। सभी ग्रामीणजन अपने-अपने घर गाय-बैल, भैंस व अन्य पशुओं के कडवे बांधकर रमजी करते है। इसके पश्चात सभी के घर पर मीठा भोजन बनाकर खाते है। गांव के सभी आदमी मुखिया या सरपंच के घर पर एकत्रित होते हैं और पापड़ी खाकर गांव के बीचो-बीच आकर फिर बड़ा कार्यक्रम होता है। इसमें दिवाली आणा वाले परिवार पांच नारियल, ढाई सौ ग्राम गुड़, दो सौ ग्राम शुद्ध घी, एक किलो गेहूँ का आटा लेकर आते हैं। इन सबको मिलाकर एक बड़े तावड़े में पापड़ी तैयार की जाती है। गाँव की सभी नई बहूएं अपनी ननदों के साथ इसमें आती हैं एवं गाँव के सभी लोगों के पगे लगती (पाँव छूती) हैं। इन बहूओं को ग्रामीण आशीर्वाद देते हैं। इसमें मेहमान भी हिस्सा लेते हैं। सभी का आदर-सत्कार होता है।
इस सम्मेलन में गांव के बुजुर्ग, मुखिया या सरपंच आदि के ग्रामीणों को दीवाली की शुभकामनाएं देते हुए सुख-समृद्धि भरे वर्ष की कामना करते हैं और गांव की एकता, नशामुक्ति, दहेज निषेध, फिजूलखर्ची पर अंकुश, सामुदायिक सहभागिता और सर्वसम्मत विकास का संकल्प ग्रहण किया जाता है। इसके बाद सभी लोगों को पापड़ी का प्रसाद दिया जाता है। इसके बाद राम-राम कहते हुए विसर्जन हो जाते हैं। इस दौरान् गीत भी होते हैं इनमें ‘पोर आ दाड़ा वेला आवजु, सब नी सुखी राखजु/ढाण्डी-सोपी, कुटूम्ब-परिवारी शांति रेजु/पोर आ दाड़ा वेला आवजु….की पंक्तियां दोहरायी जाती हैं।
दीवाली आणे का उल्लास बिखेरने आने वाली ग्राम्यजन दीवाली गीतों से परिवेश को तरंगायित कर देते हैं। इनमें मेरिया पूरते वक्त गीत ‘आज दीवाली काल दीवाली परम दाड़े भाई-भाभी ने घेर दीवाली मेरजू’, हई रे काका खेखड़ी आवे घी नो दिवो लागतो आवे घी नो लाडू खाती आवे मेरजू, डूंगरपुर नो डूंगरो पूलो हगवाड़ा नो हागड़ो पूलो, वांहवारा नो वाड़ो पूलो, टामटिया नी तोड़ी ने वरदा नी ढाकणी मेरजू, घेर मय है पण बोलती नती, कपडं ही पण पेरती नती, तेल है पण पूरती नती आदि श्रृंगार गीत भी समाहित होते हैं। वागड़ अंचल की ये दीवाली रस्में दाम्पत्य संबंधों के स्नेहसिक्त व प्रगाढ़ होने का संकेत तो देती ही हैं सामुदायिक सौहार्द के साथ उत्सवी उल्लास का ज्वार भी उमड़ाती हैं।
कल्पना डिण्डोर