श्रीमद् भागवत कथा का दूसरा दिन
उदयपुर। ध्यानयोगी उत्तम स्वामी महाराज ने कहा कि अनेक लोग कथा सुनने में आलस्य करते है परन्तु जब तक ईश्वर की कृपा ना हो तब तक ईश्वरीय शब्द श्रवण, नमन करने की कृपा नही होती। कथा श्रवण करना परमार्थ है। जन्म-जन्मांतर तक साथ चलने वाला परमार्थ कहलाता है।
वे आज वनवासी कल्याण परिषद के सहयोगार्थ टाऊन हॉल प्रांगण में श्री मद् भागवत कथा आयोजन समिति, उदयपुर द्वारा आयोजित की जा रही भागवत कथा के दूसरे दिन उपसिथत श्रद्धालुओं को कथा सुनाते हुए उक्त बात कहीं। उन्होंने कहा कि भागवत का पहला श£ोक ही सत्य है, भागवत कहती है कि भगवान के हर एक नाम में सत्य है लेकिन उसका कलयुग में अभाव है। निरन्तर एवं नित्य श्रवण परमार्थ रूपी ईश्वरीय भक्ति की और ले जाता है। जो निरन्तर सतत् किर्तन करता है उसका चैतन्य, मन जीवन परमार्थ के लायक और चरित्र के साथ ह्दय परिवर्तन हो जाता है।
पूर्ण भक्तिमयी एवं आध्यात्मिक वातावरण में ध्यान योगी महर्षि उत्तम स्वामी महाराज ने कथा का शुभारम्भ हनुमान चालीसा का पाठ करने के साथ किया और दूसरे दिन की कथा वाचन मे संत श्री ने भागवत कथा के महत्व को बताते हुए धुंधुंककारी एवं गोकर की सुनाई कथा में श्री संत ने साधु के आर्शीवाद से आत्मदेव को संतान प्राप्ति, धुंधली द्वारा छल एवं धुंधुककारी के पापो के पश्चात महाराज गोकरण द्वारा भागवत कथा के पाठ से धुंधुककारी को देव योनी की प्राप्ति के वर्तान्त को सुनाया।
द्वितीय दिन श्री मद् भागवत कथा के आयोजन मे मुख्य अतिथि आदर्श क्रेडिट-को- ऑपरेटिव सेासायटी के चेरयरमेन मुकेश मोदी, मुख्य यजमान भुपेन्द्र सिंह बडालिया, के. एण्ड आर. टेलर के संचालक कैलाश चन्द्र बुला, पटेल ड़ागी समाज के अध्यक्ष रूपलाल पटेल, लोढा एण्ड संस के सचालक ललित लोढा, तेली साहू समाज के अध्यक्ष रामनारायण साहू, स्थानकवासी श्रमण संघ के अध्यक्ष वीरेन्द्र डंागी आदि ने ध्यान योगी महर्षि उत्तम स्वामी जी महाराज के व्यास पीठ पर आसन होने के पश्चात् माल्यापर्ण कर,उपरणा ओढ़ाकर एवं पागडी पहनाकर स्वागत किया।
भजनों पर झूमे श्रृद्धालु : ध्यान योगी महर्षि उत्तम स्वामी महाराज द्वारा कथा वाचन के दौरान भजनों की प्रस्तुति ने श्रृद्धालुओं की भक्ति में तल्लीन होकर झूमने पर मजबूर कर दिया। श्री संत के श्री मुख से भजनों की सुरीली वाणी को सुनकर श्रृद्धालु मंच के समीप आकर संतश्री का अभिवादन करते हुए भजनों पर झूमते रहे और कई श्रृद्धालु अपने स्थान पर ही भजनों का आनन्द लेते रहे।