दिली जज्बात मां के नाम
सीप की कोख में पलते मोती की चमक, बंद कोपलों में खिलते फूल का यौवन, आकाश से गिरी बारिश की पहली बूंद की शीतलता….ये सब सृजन के रूप हैं, और ऐसा ही पावन और खुबसूरत है, स्त्री का माँ के रुप में परम्पिता का सृजन।
माँ….इस एक शब्द में सारी सृष्टि समाई है। माँ की बाहों से ज्यादा सुरक्षित जगह दुनिया में कोई नहीं है, माँ से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है, माँ से अधिक दयालु, त्यागी और स्नेही दूजा नहीं है। मेरा रोम-रोम मेरी हर सांस माँ की ऋणी है। यह ऋण भी ऐसा है कि सो जनमों में भी कोई इससे उऋण नहीं हो सकता। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘‘ भगवान हर जगह मौजूद नहीं रह सकता इसलिए उसने माँ की रचना की है।’’
हां, मैं भी एक माँ हूं…..गौरवांवित हूं ईश्वर की दी हुई इस नेमत से। आज बात करूंगी अपनी माँ की….लोग कहते हैं, मैं अपनी माँ पर कई हूं, वही रूप-रंग, वहीं नैन-नक्श। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मैं माँ की तरह दिखती जरूर हूं किन्तु सौ प्रतिशत उसके जैसी हूं नहीं। आखिर दिखना और होने में बहुत बड़ा फर्क होता है।
भोर होते ही माँ का उठ जाना, घर-आंगन बुहारना, गुनगुनाना, सीधे पल्ले की ऊॅंची सी साड़ी पहनना, दादा को, सबके लिए खाना बनाना, हर किसी को बा, काका, पापा को खाना परोसना, सबको खिलाने के बाद खुद खाकर आत्मतोष से दीपदीपाना। स्वेटर बुनना, क्रोशिया चलाना, रामायण पढऩा, कढ़ाई करना, सिलाई करना। दिनभर की अनथक मेहनत के बाद सबको सुलाकर सोना। उसके बावजूद माँ के चेहरे की दीप्ति, उसका धैर्य, उसका आत्मविश्वास कभी चुकता ही नहीं।
माँ के दिये हुए जीवन मूल्य व संस्कार मुझमे पनपे। उसकी बुद्धिमता परिलक्षित हुई, मेरे सोचे सपने साकार हुए मेरी उड़ानों में। माँ ने ही सिखाया ममत्व, अपनत्व, कत्र्तव्य बोध, समर्पण और सबसे अहम था सभी रिश्तों में प्रेम व आत्मीयता रखना। बचपन में मेरे नन्हें कदमों को थिरकता देख माँ का मनमयूर नाच उठता था, घर से स्कूल जाना, स्कूल से घर लौटना….सब कुछ स्मृति मंजूषा में मानो संचित अनमोल हीरे हैं जो माँ की अच्छाईयों की आभा से मंडित हैं। माँ कर्मठता, संस्कारों, इच्छाशक्ति, सहनशीलता, समर्पण, त्याग और संघर्ष का प्रतिरूप है। पाल-पोसकर बड़ा किया, उखाड़ा….फिर रोप दिया किसी और की बगिया में।
जीवन के हर मुश्किल क्षण में जब भी हाथ बढ़ाया, तुम फौरन चली आई….मेरे दोनो ंबच्चों की परवरिश के समय तमाम व्यस्तताएं भुला लोरी सुनाने व झूले से नाता जोडऩे चली आई। मैं की ऋणी हूं जिसके कंधों ने मेरे ख्वाबों के इंद्रधनुष उठाए, जिसकी आंखों में फूलों के दृश्य रचे, सपने देखे मेरे लिए। उसे उसी गरिमा के साथ्ज्ञ, उन रंगों को जिन्दगी में फैलते और फूलों को महकते देखने का अवसर देना मेरे लिए जीवन की सबसे पहली व बड़ी चुनौती है। माँ तुम्हारा लहू मेरे पूरे वजूद में सांस लेता है, तुम्हारी आंखे मेरे पोर-पोर से झांकती हैं, तुम्हारी सख्ती मेरे बच्चों के दुलार में रस घोलती है। तुम मेरे जीवन सफर की वह पगडंडी हो जिस पर दौडक़र मैं पा जाती हूं अपनी मंजिल…..तुम्हारी ढेर सारी दुआओं की रोशनी की बदौलत…….माँ तुझे सलाम।
‘ दिल से कही गई बात, गर आपके दिल में भी,
जगा दे वैसे ही अहसास, तो इसे कहते हैं जज्बात।’
माँ कहती है मीठा बोला, कटु बोलना मत सीखो। राह दिखाओ, राह भटकना मत सीखो। दीप जलाओ, दिल जला मत सीखो। आंसू पोछो…..दिल को दुखाना मत सीखो। सबको हंसाओ, किसी पर हंसना मत सीखो। मदर्स डे के मौके पर माँ के सम्मान में यही तीन शब्द कहूंगी…. माँ तुझे सलाम।
नीलम कटलाना, प्रतापगढ़