उदयपुर। साध्वी नीलांजना श्रीजी ने कहा कि अपने कर्म को व्यवहार में लाना होगा। साधु जीवन तो अपना लंे लेकिन तप, जप नही करंे, प्रतिक्रमण नही कर, पौषध नही करें तो उसको कौन नमस्कार करेगा।
वे मंगलवार को वासुपूज्य स्थित दादावाड़़ी में नियमित चातुर्मासिक प्रवचन सभा को संबोधित कर रही थी। उन्होंने कहा कि अपने स्वभाव में रहना ही धर्म है। ज्वलनशीलता सिगड़ी, आग का धर्म है ठीक उसी तरह शीतलता पानी का धर्म है। अगर पानी को गैस पर चढ़ाओ तो गर्म हो जाता है लेकिन गैस बंद करने के बाद वो वापस ठंडा हो जाता है। उसका धर्म ही शीतलता है इसलिए अपने स्वभाव को वो नही छोड़ सकता। सभी का अपना स्वभाव है। प्रत्येक वस्तु के स्वभाव को समझ लेना ही धर्म है। पदार्थ यानी सुख सुविधा हमें भ्रमित करते हैं।
उन्होंने कहा कि ध्यान दर्शन और चारित्र आत्मा का स्वभाव है। भगवान ने ये आंखें दी हैं सिर्फ फिल्म देखने के लिए नही बल्कि खुद के साथ दूसरे जीवों की रक्षा के लिए। में संसार में लिप्त हूँ, उलझा हुआ हूँ इसलिए आवृत्त से घिरा हुआ हूँ। परमात्मा अनावृत्त हैं क्योंकि वे इससे मुक्त हो चुके हैं। ज्ञान कहीं बाहर नही है मेरे अंदर ही है। पुरुषार्थ तो बहुत किया लेकिन एक जगह नही किया। अलग अलग जगह बहुत ज्यादा मेहनत की लेकिन एक ही जगह मेहनत करते तो सफलता मिल जाती। पुरुषार्थ ऐसा ही करना चाहिए।