जयपुर, पिछले 12-15 दिनों से समाचार पत्रों से “राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स”, जयपुर के विद्यार्थियों की लम्बी हड़ताल के बारे में पता चला। राजस्थान राज्य की इस प्राचीनतम कला संस्थान की गरिमा को ऐसे ध्वस्त होते देख मुझे बड़ा दु:ख हुआ। यह भी विडंबना है कि विद्यार्थी संस्था में योग्य शिक्षकों की मांग कर रहे हैं जो हमारे प्रदेश में शिक्षकों की चयन प्रणाली पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।
उचित व योग्य शिक्षकों की मांग करना राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स के विद्यार्थियों की कला-शिक्षा के प्रति जागरूकता दर्शाता है, जिसकी ओर राजस्थान सरकार का उदासीन रुरव राजस्थानी कला विकास के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है, क्योंकि कला एक गंभीर प्रयोजन है और राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट् एक व्यवसायिक कला शिक्षण संस्था है। एम.ए., एम.एफ.ए., डिप्लोमा-डिग्रीयों की बहस बेमानी है। प्रश्न है – योग्य, प्रतिभाशाली व कला-शिक्षण के प्रति प्रतिबद्ध शिक्षक चुनाव का। प्रश्न है, एक कला सृजन के प्रति समर्पित संस्था के विशिष्ठ चरित्र गठन का l प्रश्न है विद्यार्थियों में उस कला चेतना के संचार का जो हमें जीवन मूल्यों से जोड़ती है।
आज आवश्यकता है उस कला शिक्षा की जो युवाओं को कौशल में तो सिद्धहस्त करे ही, साथ ही उन मानवीय मूल्यों के प्रति भी चेतन करे जो होमोसेपियंस से लेकर आधुनिकतम मानवीय व्यव्हार का विधिवत अध्ययन हो l मेरी मान्यता है की एक कलाकार सवप्नदर्शी होने के साथ-साथ एक टीकाकार भी होता है l कला संरचना में कौशल और सामाजिक चेतना का समन्वय कलाकार की अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करता है l
20 वीं सदी के पांचवें दशक में बड़ोदा (गुजरात) में महाराजा सयाजी राव विश्विद्यालय ने भारत में पहला कला संकाय (फेकल्टी ऑफ़ फाईन आर्ट्स) शरू किया था जो आज समस्त एशिया में श्रेष्टतम कला संकाय का दर्जा पा चुका है l इस कला संकाय की विशिष्ठ्ता यह है की यहाँ विद्यार्थी “कला क्या है” “क्यों रचना है”, तथा “अब क्या करना है” जैसे जटिल प्रश्नो से तार्किक स्तर पर साक्षात्कार करता है और अपनी निजी सोच के साथ सर्जन की और उन्मुख होता है l यह सर्वविदित है की इस संकाय (बड़ोदा) से कला शिक्षा प्राप्त कलाकार आज देश के अग्रणी कलाकार माने जाते है l हालाँकि यह भी कम चिंताजनक नहीं की इसी श्रृंखला में शांति निकेतन, सर जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स, कलकत्ता तथा मद्रास जैसी प्रसिद्ध कला संस्थाए भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानदण्डो से जूझ रही हैं l जबकि ठीक इसके विपरीत राजस्थान, मध्यप्रदेश, उतरप्रदेश आदि की अव्यावसायिक, अधकचरी, कमजोर कला शिक्षा क्षीण तथा सृजन के प्रति अनभिज्ञ कला स्नातकों को कला वाचस्पति (Ph.D) की उपाधि के बाद कला-शिक्षक बनने का मार्ग प्रशस्त कर देती है।
सन् 1857 में मदरसा-ए-हुनेरी के नाम से स्थापित इस संस्थान को कालान्तर में महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्ट्स तथा स्वतंत्र भारत में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स का नाम दिया गया। दुर्भाग्यवश अंग्रेजी शासन से मुक्ति के पश्चात् इस संस्थान के प्रति लोकतांत्रिक सरकार के शिक्षा विभाग की उदासीनता ने अनेकों बार विद्यार्थियों के रोष और हड़तालों को निरुत्साहित किया है। दुर्भाग्यवश सरकार में ऐसा कोई मसीहा अफसर या राजनेता सामने नहीं आया जो कला संकाय की राज्य में उपादेयता के प्रति गंभीर चिंतन करता और राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स को देश की सर्वोच्च कला संस्थानों की श्रेणी में लाने की दूरदर्शिता का प्रदर्शन करता।
यह सर्वविदित है कि परम्परागत राजस्थानी चित्रकला का गौरव विश्व के लगभग सभी बड़े संग्रहालयों में सुशोभित है, परन्तु क्यों नहीं राज्य सरकार इस महान् व बहुमूल्य परंपरा का आदर करते हुए आज हमारी कला संस्थाओं का समसामयिक प्रासंगिक रुप देने की पहल करती है ?
दुर्भाग्यवश, हमारी संपूर्ण वर्तमान शिक्षा प्रणाली गंभीरता से धन कमाने वाले रोबोट्स का निर्माण करने में लगी है। अर्थोपार्जन ही प्रमुख ध्येय है। चाहे इस प्रक्रिया में युवा निरंतर आत्महत्याऐ करते रहे। मेरा विश्वास है, यदि आम आदमी कला से निरंतर साक्षात्कार करने लगे तो उसे अनेकानेक उलझनों का स्वतः ही उत्तर मिलने लगेगा। अनंत आनंद के साथ ही प्रफुल्लित जीवन अंकन उसे प्रगतिशील बनाएगा। आज अमेरिका तथा पश्चिमी देशों में तनाव, मुक्ति, मानसिक असंतुलन, तेज सिरदर्द आदि का कला थेरेपी के द्वारा उपचार दिया जाने लगा है। सरकार को यह समझना होगा कि कला-शिक्षा एक गंभीर व्यावसायिक विधा है।
बहरहाल, इन कला विद्यार्थियों की मांग और राजस्थान सरकार की सहानुभूति की अपेक्षा के साथ आशा करता हूँ कि एक देशज स्तर की उच्चस्तरीय कला-शिक्षक कमेटी का गठन कर उसकी अनुशंसा पर राजस्थानी महान् कला परंपरा धारा की आत्मा को पुनर्जीवित कर समसामयिक संदर्भों में प्रासंगिक बनाकर इन विद्यार्थियों को उपहार दें और आज के इस घृणास्पद, भेदभावपूर्ण तथा तनाव भरे जीवन में कला की उपादेयता का अर्थ समझ आम जन-जीवन को प्रफुल्लित करने में योगदान दें।