सृष्टि का हर व्यक्ति व क्षेत्र अपने आप में अन्यतम है। हर किसी व्यक्ति या स्थान में कोई न कोई ख़ासियत ऐसी होती ही है जो उसे औरों के मुकाबले कुछ अलग होने का भान कराती है।
विधाता ने संसार में जो कुछ दिया है वह सब अपने आपमें अन्यतम है अर्थात उस जैसा और कोई है ही नहीं। सृष्टि के प्रत्येक तत्व का अपना विशिष्ट मौलिक गुण-धर्म और व्यवहार है। बात भले ही जड़ की हो या चेतन की, सभी जगह यह सिद्धांत लागू होता है।
भगवान ने जब अलग पहचान देकर भेजा है तब उसके पीछे यही भावना होगी कि यह विशिष्ट बीज आगे चलकर किसी विशिष्ट कारक या घटना को जन्म देगा और विशिष्टता का वटवृक्ष पल्लवित होगा।
लेकिन विधाता के विधान को नहीं समझते हुए हम एक की दूसरे से तुलना करने लग जाते हैं चाहे फिर वह कोई व्यक्ति हो, वस्तु या स्थान विशेष। जहाँ हम तुलना करने लग जाते हैं वहाँ व्यक्ति, वस्तु या स्थान विशेष के मौलिक गुण-धर्म और व्यवहार के साथ अन्याय होना शुरू हो जाता है और कहीं न कहीं लगता है कि यह मौलिकता का हनन करने का प्रयास होने के साथ ही हमारी नकलची परंपरा या अंधानुकरण या अनुचरीकरण की मनोवृत्ति को प्रकट करता है।
तुलना का क्षेत्र ऐसा व्यापक हो चला है कि इसमें प्रजातियों या किस्मों की कोई सीमा रेखा नहीं है। बल्कि जो चाहे किसी की भी किसी से भी तुलना कर सकता है। कोई तुलना आंशिक होती है तो कोई पूरी। लेकिन होती जरूर है। कई बार बेतुकी तुलना हो जाती है और कई बार सटीक।
बात यहीं तक सीमित नहीं है। हैरत की बात तो यह है कि आदमी के अंगों और शारीरिक संरचनाओं की तुलना जानवरों और पेड़-पौधों या कि उनके अंगों से की जाती रही है।
आदमी के व्यवहार की तुलना भी जानवरों से की जाती है। लोक साहित्य से लेकर सम सामयिक साहित्य और लोक धाराओं तक में इस प्रकार च्तुलना साहित्यज् हर युग में पूरे यौवन पर रहा है।
मजे की बात यह भी है कि किसी की तुलना होने पर सामान्यता गुण-धर्म के आधार पर पूरी बात सामने वालों को समझ में नहीं आती लेकिन जैसे ही किसी जानवर या उसके अंगों अथवा आँगिक संचालन से तुलना की जाती है, हरेक को अच्छी तरह समझ में आ जाता है। कुछेक मामलों में उच्च्तम आदर्शों वाले व्यक्तियों की तुलना ईश्वर से भी की जाती है जैसे भाले-भाले व्यक्तियों के लिए भोला शंकर कहा जाता है।
आदमी के अंगों और व्यवहार को भी तुलना के पैमाने की कसौटियाँ प्राप्त हैं। जैसे मस्त या भरे-पूरे आदमी को राजा आदमी, सच्चे लोगों को सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र, पतिसेवी और समर्पित स्त्री को सती सावित्री, मोटे लोगों को हाथी जैसा, मूर्खों को उल्लू, बोझा ढोने वालों को कोल्हू का बैल या गधों जैसा, चालाक लोगों को लोमड़ी, मछली की आँखों वाली नारियों को मीनाक्षी, इधर-उधर आवारा घूमते हुए और जहाँ-तहाँ की झूठन चाटने वालों को कुत्तों जैसा, सूंघने वालों को सूअर जैसा, बहुत सीधे लोगों को गाय, भौंदूओं को गैण्डा या भैंस-भैंसा, लड़ाई-झगड़े करने वालों को राक्षस या असुर, हमेशा औरों को काट खाने वालों और धन-संपदा पर कुण्डली मारे बैठे लोगों को साँप या भुजंग, बिना कुछ किए पड़े-पड़े खाने वालों को अजगर, उछल-कूद करने वालों को बंदर, खूब खाने-पीने और सोने वालों को कुंभकर्ण, विश्वासघातियों को विभीषण, गृह कलह कराने वाली नारियों को कैकयी, सौन्दर्यशाली नारी को चन्द्रमुखी और इससे भी कहीं आगे चलकर कद-काठी और व्यवहार को देखकर अलग-अलग नाम दिए जाते हैं, किसी को मामा शकुनि और किसी को मामा कंस, धूर्त्त नेताओं और भ्रष्ट अफसरों को रावण आदि की संज्ञाएं दी जाती रही हैं।
तुलना अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में की जाती रही है और ऐसा करने का अधिकार स्वातंत्र्य सभी को है। तुलना करने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है। आजकल जो कोई लोग जीवन संघर्ष में कहीं आगे बढ़कर उपलब्धियां हासिल कर लेते हैं उनकी भी तुलना पूर्ववर्ती समानधर्मा लोगों से होने लगती है।
इस तुलना का नकारात्मक प्रभाव यह होता है कि जिसकी तुलना की जा रही है वह तुलना होने वाले की पुरानी फ्रेम या परिधियों में सिमट कर रह जाता है और ऐसे में उससे आगे के लक्ष्यों को पाने का चरम सामर्थ्य पाने के बावजूद ठहर जाने की स्थितियां आ जाती हैं।
वहीं दूसरी तरफ किसी और से तुलना हो जाने के बाद नवीन व्यक्ति अन्यतम नहीं रह जाता है। कहीं न कहीं वह फिर पुराने युगों और वर्षों में लौटने लगता है। वरना तुलना न होने की स्थिति में उसके लिए उपलब्धियों का अनन्त आकाश छूने के अनन्त अवसर और अपार ऊर्जाओं की कोई कमी नहीं रहा करती। लेकिन लोगों की एक किस्म है जो इनकी तुलना कर ही डालती है और बाँध दिया करती है इन्हें आगे बढ़ने से या अपनी अन्यतम मौलिकता का दिग्दर्शन कराने से।
यही स्थिति स्थान विशेष के बारे में भी होती है। पूरी दुनिया अनन्त अजब-गजब प्रकृति और सौन्दर्य के नज़ारों से भरी पड़ी है जहाँ कोई किसी का सानी नहीं है। लेकिन लोगों की एक प्रजाति ऐसी है जो स्थान विशेष की मौलिक विलक्षणओं और विशिष्ट सौन्दर्य की तुलना करने लग जाती है और उसे भी सिमट देती है किसी और की परिधियों में।
बात अपने इलाके की हो या फिर देश-दुनिया के किसी कोने की। बड़े, घुमक्कड़ और ढपोरशंखी लोगों का काम ही रह गया है तुलना करना। और ये किसी न किसी बहाने अपनी शेखी बघारने ऐसी बेतुकी तुलनाएं करते रहते हैं। जबकि इन तुलना करने वालों को भी पता नहीं होता कि वे जिससे तुलना करते हैं वह कहीं इक्कीस नहीं ठहरता और उससे भी कई गुना अधिक प्रभावी होता है।
कोई अपने यहां स्विट्जरलैण्ड की कल्पना करता है, कोई पेरिस की, कोई अपने इलाके की तुलना मैनचेस्टर से करने लगता है, कोई कुछ और। लोगों ने अपने क्षेत्र की नदियों से लेकर मन्दिरों और तीर्थों तथा पहाड़ों, घाटियों या हरियाली तक को नहीं छोड़ा है तुलना करने से। कोई अपने गांव की प्राचीनतम देवी मैया के धाम को पावागढ़ बताता है तो कोई वैष्णोदेवी, कोई लोढ़ी काशी की बात करता है तो कोई पुण्य क्षेत्र की।
ज्यों-ज्यों पर्यटन और धर्म के नाम पर धंधेबाजी का शगल शुरू हुआ, उसके बाद तो तुलनाओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पूरे देश का कबाड़ा करके रख दिया है। बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिन्हें किसी और क्षेत्र से तुलना करते हुए उससे दूसरे स्थान पर रखा जाता है। यह भी उन लोगों के षड़यंत्र का हिस्सा हो सकता है जो अपने स्थल को अद्वितीय बनाये रखने के फेर में अपने से अच्छे स्थल को स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
एक बात यह अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि व्यक्ति हो या कोई स्थल, किसी और से तुलना की जाकर उसके महत्त्व को बढ़ाया या स्वीकारा नहीं जा सकता, बल्कि इससे ऐसे व्यक्तियों और स्थलों की कद्र घटती ही है और इनका स्थान द्वितीयक हो जाता है। इस प्रकार किसी की भी किसी से तुलना करते हुए अनचाहे ही हम मूल से भटक कर दूसरों की चर्चा करते हैं और यह एक प्रकार से दूसरे पक्षों के मुफतिया प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसलिए कभी भी किसी की तुलना न करें। किसी से किसी की तुलना करना ईश्वर का अपमान है जिसने पूरी दुनिया को विलक्षणताओं से परिपूर्ण कर रखा है।
– डॉ. दीपक आचार्य