29 अक्टूबर को जन्मदिन पर विशेष
सन् 1925 में 29 अक्टूबर को सिंध प्रदेश के हैदराबाद (जो अब पाकिस्तान में है) में प्रसिद्ध ज्योतिषी पं. गिरिधर लाल शर्मा के घर जन्म लेने वाले बालक भानु कुमार का उदय राजनीति के नभ मण्डल में दैदीप्यमान भास्कर के रूप में हुआ। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी के बाद वे उदयपुर आये और इसी को अपनी कर्मभूमि बनाया।
मेवाड़ अंचल में राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते हुए मुझे जिन दो विभूतियों की सादगी ने अत्यन्त प्रभावित किया उनमें पूर्व सांसद मामा बालेश्वर दयाल और भानुकुमार शास्त्री शामिल हैं। 1998 के चुनाव में जनता दल के सीटों के तालमेल के विषय पर चर्चा करने के लिये मैं भाजपा के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष रघुवीर सिंह कौशल के साथ बामनिया गया, जहां मामाजी की आठ गुणा दस फीट की कुटिया एक कोने में बैंचनुमा तख्त वहीं था उनका बिछौना, बिजली के झूलते तार पर होल्डर के सहारे लटका हुआ बिजली का बल्ब यह राज्यसभा के पूर्व सांसद मामाजी का स्थायी आवास जीवन भर इसी सादगी के साथ रहकर शुचिता का पर्याय बन जनजाति क्षैत्र में शिक्षा व राजनीतिक जागरूकता का कार्य किया। ठीक उसी प्रकार पूर्व सांसद व काबिना मंत्री के दर्जे के साथ निगम, बोर्डों के अध्यक्ष रहे भानुकुमार शास्त्री का तीस-पैंतीस वर्ष से वही कमरा। उस कक्ष में वही कुर्सियां, वही टेबल, वही अलमारी। भानुजी पद पर रहे या नहीं इसका कमरे के फर्नीचर या साज सज्जा पर कभी परिवर्तन नहीं आया।
भानुजी का राजनीतिक जीवन लम्बा है। उन्हें संघ के साधारण स्वयंसेवक से लेकर संसद तक की दीर्घ यात्रा में पं. दीनदयाल उपाध्यक्ष, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरोसिंह शेखावत, जगन्नाथराव जोशी, सुन्दरसिंह भण्डारी, संघ के सरसंघ चालक मा.स. गोलवलकर (गुरूजी), बाला साहेब, देवरस, एकनाथ रानाडे व माधवराव मूले जैसे नायकों के साथ विभिन्न पहलुओं पर विचार विमर्श व सहचर्य का सौभाग्य प्राप्त है।
1967 के विधानसभा चुनाव में भानुजी ने तत्का्लीन मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिय़ा के खिलाफ चुनाव लड़ा। चुनाव के पश्चात उन्होंने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। अपने विरुद्ध आए हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाना था। इसके लिये बीस हजार रूपए की जरूरत थी। जनसंघ विधायक दल के तत्कालीन नेता भैरोंसिह शेखावत से चर्चा के बाद योजना बनी। पूरे प्रकरण व कोर्ट की टिप्पणियों को पुस्तिका के रूप में छपवाकर भानुजी पूरे प्रदेश में प्रवास करें। बीस हजार पुस्तिकाएँ छपवाई गई। भानुजी ने डेढ़ माह तक पूरे राजस्थान का प्रवास कर सभाओं को सम्बोधित किया। वहां उन पुस्तिकाओं का विक्रय कर एकत्र राशि से सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
1942 में संघ के स्वयंसेवक बनने के बाद 1951 में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने। भानुजी ने जीवन के 40 माह जेल में बिताए। आपातकाल में इनके आठ भाई जेल में थे। इसी दौरान बहन की शादी के लिये पैरोल पर आये और तुरन्त वापस जेल चले गये। उदयपुर सिटी कॉर्पोरेशन के पार्षद से लेकर उपसभापति, विधायक, सांसद, लघु उद्योग निगम व खादी ग्रामोद्योग बोर्ड अध्यक्ष रहे शास्त्री के शुचितापूर्ण, सिद्धान्तनिष्ठ जीवन पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा पाया।
25 जून 1975 से शुरू हुए आपातकाल के संघर्ष के समय वे जनसंघ के प्रदेशाध्यक्ष थे। 1977 में जनता पार्टी के गठन के समय जयपुर के जनसंघ प्रदेश कार्यालय में पार्टी के विलय की घोषणा करनी थी। तब भैरोसिंह शेखावत ने शास्त्रीजी से कहा कि तुम जनसंघ का झण्डा उतार लो। शेखावत के दो-तीन बार कहने पर भी शास्त्री जी यह कार्य नहीं कर सके तो शेखावत उन्हें कार्यालय उन्हें कार्यालय की छत पर ले गए और शास्त्री का हाथ थामकर अपने हाथ से जनसंघ का झण्डा उतारकर जनता पार्टी का झण्डा फहराया। तब दोनों की आंखें डबडबा गई, दोनों गले मिलकर रोए। शास्त्री कहते हैं जिस झण्डे को लेकर गांव-गांव भूखे-प्यासे साइकिल पर घूमते रहे, आन्दोलन किए, लाठियां खाई, जेल गए, उस झण्डे को उतारना मेरे लिए अकल्पनीय था।
राजनीति व सार्वजनिक जीवन में शुचिता का स्मरण करते ही भानुकुमार शास्त्री का संघर्षमय, कर्मठतापूर्ण व जुझारूपन लिये व्यक्तित्व अपनी तेजोमय आभा लिए दिग्दिर्शित होता है। भानुजी का जीवन राजनीति व सार्वजनिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए सफलता शिखर का पाथेय है। राजनीति की रपटीली राहों में उतार-चढ़ाव के मध्य स्थित-प्रज्ञ भाव से अटल रहना, निश्चित रूप से प्रेरणास्पद है। शास्त्री राजनीति जैसे क्षेत्र में अपने आदर्श जीवन से सभी के लिए प्रेरणा—पाथेय बन गए। उन्हें ‘जीवेम शरद शतम्’ की शुभकामनाएं।
‘कोई चलता पद चिन्हों पर
कोई पद चिन्ह बनाता है,
वही सूरमा इस जग में,
जन-जन से पूजा जाता है।’
धर्मनारायण जोशी