बलवंत शर्मा, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट अम्पायर
मेरे पिता रामगोपालजी [बाद में गोपालजी मिस्त्री के नाम से प्रसिद्ध हुए] यहां आए. उनके शिष्य गंगादास जी महाराज एवं उनके शिष्य महंत मुरली मनोहर शरण जी. हम मूलत: जयपुर निवासी थे. उदयपुर के लोग उस समय सिलाई मशीनें ठीक कराने रतलाम जाते थे. कानहरदास महाराज की प्रेरणा से मेरे पिताजी ने दो वर्ष रतलाम में रहकर सिलाई मशीनें ठीक करने का प्रशिक्षण लिया. फिर उदयपुर में सिन्धी बाजार स्थित समाज की एक दुकान दो रुपए प्रतिमाह किराये पर ली. पूरे मेवाड़ संभाग में पहली एकमात्र दुकान थी जहां लोग सिलाई मशीनें ठीक कराने आते थे.
मेरे पिताजी ने 1935 में ड्राइविंग लाइसेंस लिया. करीब 26 वर्षों तक उन्होंने अस्थल मंदिर की कार चलाई. लोग मशीनों के बारे में उनकी राय लेते थे. सुदूर गांवों से मशीनें बसों में भेजते थे. बसों के परिचालक मशीन लेकर आते और ठीक कराकर वापस ले जाते. मेरी स्कूलिंग प्रताप विद्यालय के धनजी मास्टर साहब के सान्निध्य में शुरू हुई. उन्होंने ही मेरा नाम बाबूलाल से बलवंत किया. धानमण्डी के हरीश महर्षि, बंशीलाल मेहता, तुलसीराम त्रिवेदी, फतह स्कूल, सिराज अहमद सिन्धी, भगवानदास, कलिका प्रसाद भटनागर, शंकरलाल गौड़ आदि शिक्षको की शिष्यों के प्रति काफी सद्भावना रहती थी.
फतह स्कूल का ग्राउण्ड उस समय नियमित रूप से फुल रहता था. वहां आए दिन कोई न कोई टूर्नामेंट होता रहता था. पहले क्रिकेट तो कम प्रचलित था लेकिन हॉकी, फुटबाल तथा वॉलीबाल काफी लोकप्रिय थे. खेल के प्रति बच्चों में काफी समर्पण होता था. प्रतिदिन 3-4 घण्टे खेल के लिए देने ही थे. यहां तो रेलवे की ओर से राष्ट्रीय आयरन्स गोल्ड कप प्रतियोगिता होती थी.
उदयपुर में सबसे बड़ा पहला मैच 1964 में देखा जिसमें सलीम दुर्रानी आए थे. मैच यहां बी. एन. ग्राउण्ड पर हुआ. इसके बाद 68 में रणजी के सेमीफाइनल में मुम्बई की टीम यहां आई थी जिसमें अजीत वाडेकर सहित कई बड़े-बड़े टेस्ट खिलाड़ी आए थे. उसमें विजय भोंसले ने दोहरा शतक बनाया था.
1976 में मैंने यहां मेवाड़ क्रिकेट क्लब की स्थापना की जिसे 79 में सुखाडिय़ा लीग में प्रवेश मिला. 1983 में क्लब ने बी डिवीजन जीता. आज प्रमुख दो क्लब अरावली व मेवाड़ उदयपुर में जाने-पहचाने नाम हैं. उस समय मुम्बई की फोर्स यंगस्टर्स की टीम यहां आई थी जिसमें जाने-माने खिलाड़ी थे. उदयपुर में उनके पांच मैच पेस्टीसाइड्स, जेके, जिंक यूसीसी एवं मेवाड़ से हुए जिनमें सिर्फ मेवाड़ की टीम ने अपना मैच जीता. शेष चारों मैच यंगस्टर्स की टीम जीती. टीम भावना से उन्हें खेलना सिखाया. स्वनुशासन प्रमुख रूप से खिलाडिय़ों को सिखाया. उदयपुर के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि वर्ष 1988-99 तक मेंटनेंस के मामले में उदयपुर का एम. बी. कॉलेज ग्राउण्ड देश का सबसे बड़ा ग्राउण्ड माना गया.
क्रिकेट में पूर्णतया व्यस्त होने के कारण मैंने अपनी दुकान काम करना धीरे-धीरे बंद करना शुरू कर दिया क्योंकि पिताजी की इज्जत बरकरार रखनी थी. कई ऑफर भी आए कि ठेके पर दे दीजिए लेकिन उनका जो नाम था, वह यथावत रहे. मैं काम नहीं कर सकता था, परिवार में भाइयों व बच्चों किसी को भी यह काम नहीं सिखाया. फिर धीरे-धीरे काम बिलकुल बंद कर दिया. सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं.
बापू बाजार में दुकानें लकड़ी के केबिनों में थी. पिताजी के पास फिलिप्स इंगलैण्ड की साइकिल थी. यहां के लोगों में काफी सद्भावना व सहिष्णुता थी. लोग किसी के घर का पता पूछते तो सिर्फ बता भर नहीं देते बल्कि उसे घर तक छोड़कर आते. आज तो वह एक सपना मात्र बनकर रह गया है.
खाने-पीने के लिए उस समय फतह मेमोरियल के सामने कॉर्नर पर वल्लभ रेस्टारेंट था. यहां की मावे की कचौरी काफी प्रसिद्ध थी. एक बात ओर कि तीखे या चरके आइटम तो कम थे, मिठाई ही पसंद की जाती थी. रबड़ी, रबड़ी के मालपुए, जलेबी, नुक्ती, गुलाबजामुन या नुक्ती की चक्की. अमूमन हर खाने छोटे-बड़े जीमण का यही मीनू होता था. पंचायती नोहरे के पास मगन तेली की जलेबी, मुखर्जी चौक में नाथूलाल टोडूमल दया की मिठाई की बड़ा बाजार स्थित जोधपुर मिष्ठान की मिठाई प्रसिद्ध थी.
जिन्दगी में एक बात सीखी और उस पर अडिग रहा कि कमिटमेंट के साथ काम करो. यह विरासत में मिला और ताजिन्दगी इस पर अमल किया. गुरुजनों, डॉ. आर. एस. राठौड़ सहयोगियों सभी के सहयोग से यह मुकाम हासिल किया.
[जैसा उन्होंने उदयपुर न्यूज़ को बताया]