शहर की सरकार के हाल ऐसे जैसे लगता है पोपाबाई का राज हो। झील किनारे निर्माण करने वाले मस्त हैं। एक बार निर्माण तो कराओ, फिर देखेंगे…। इस तर्ज पर धड़ाधड़ निर्माण हो रहे हैं। कोई पर्दे लगाकर तो कोई खुलेआम निर्माण निषेध क्षेत्र में निर्माण करा रहा है। बिल्कुल वही बात है कि नो पार्किंग वाले क्षेत्र में ही सबसे ज्यादा गाडि़यां पार्क की जाती हैं।
झील किनारे या पेटे के इन क्षेत्रों में होने वाले निर्माण पर अधिकारी से पूछो तो वे कहते हैं कि मैडम ने कहा था कि ऐसा करना है। अगर नहीं करना है तो नहीं करेंगे। मैडम से पूछो तो वे कहती हैं कि अधिकारी से कहा था ऐसा करने को.. नहीं किया है तो देखते हैं। अरे कौन कौन कब तक देखते ही रहेंगे… झीलों की नगरी यूं ही लुटती रहेगी। हरे पर्दे लगाकर धड़ाधड़ व्यावसायिक निर्माण हो रहे हैं। राजस्व शाखा के साहब जाते हैं.. एक पत्थर तुड़वाकर कार्रवाई करना बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं और साहब को आकर बता देते हैं कि कार्रवाई हो गई है। अब क्या कार्रवाई करने जनता को ही आगे आना होगा। ज्यादा कार्यवाही क्यों नहीं करते… अब ये या तो निर्माण करने वाले खुद ही जानें या फिर ये कार्रवाई के नाम पर घूम फिरकर आने वाले जानें….।
शहरों की सरकार के पहले वाले मुखिया को ही देख लो… ऐसे दूध के धुले निकले कि खुद तो साफ रहे… पीछे से भाई को इजाजत दे दी। भाई ने सीवरेज का ठेका ले लिया और उसमें जो करना था… कर लिया।
मुखियाजी तो भाईसाहब की धोती पकड़कर चलते रहे… जब मुखियाजी का पद गया तो भाईसाहब के ही खिलाफ सामने वाले दल में हो गए। भाईसाहब तो अपने वैसे ही
अलमस्त हैं। तू है तो भी ठीक… नहीं है तो भी ठीक… तेरे जैसे रोज आते हैं… की तर्ज पर अपना लठ खुद ही घुमाते हैं। ऊपर राजस्व शाखा में देखो तो वहां के निरीक्षक साहब तो मौके पर कार्रवाई करने जाते हैं लेकिन वहां जाकर भी हाथ मिलाकर आ जाते हैं..। क्या होगा इस शहर का.. भगवान ही जाने लेकिन जनता… वो कब तक सोती रहेगी…। बड़ा दुर्भाग्य है कि आग मेरे घर तक आएगी तो देखूंगा… बाकी भले ही पड़ोसी के घर में लग रही हो… मुझे क्या लेना।