वागड़ की होली : लोक लहरियाँ उमड़ा रही हैं मौज-मस्ती का दरिया
राजस्थान का समूचा वनवासी बहुल दक्षिणांचल वागड़ क्षेत्र होली के रंगों में सराबोर है और सदियों पुरानी आकर्षक परम्पराओं का अद्भुत नज़ारा इन दिनों हर किसी का मन मोह रहा है। हवाओं में फागुनी रसों की भीनी-भीनी महक तैरने लगी है और फिज़ाओं में लोक रस्मों के जाने कितने रंग मदमस्ती का ज्वार उफना रहे हैं।
खासकर मालवा और गुजरात की लोक संस्कृतियों को अपने में आत्मसात किए हुए सीमावर्ती डूँगरपुर और बाँसवाड़ा दोनों जिलों में शहरों और गाँवों का माहौल होली की पारम्परिक लोक रस्मों से भर आया है। इन दिनों वाग्वर अंचल में होली की अनूठी परम्पराओं भरा माहौल हर किसी का मन मोहने लगा है।
वनवासी इलाकों में अरावली की उपत्यकाओं से रह-रहकर ढोल-कौण्डियों, चंग और टाँसों के साथ ही परम्परागत लोक वाद्यों की स्वर लहरियाँ और फागुनी गीत प्रतिध्वनित हो रहे हैं।
फागणिया गान और गैर नृत्यों की धूम
समूचे वनवासी अंचल डूंगरपुर और बांसवाड़ा में फागुनी रंगों का माहौल परवान चढ़ता जा रहा है। इन दिनों तमाम गांवों और शहरों में गैर की टोलियां ढोल-नगाड़ों, कौण्डियों और थालियों की आवाजों पर फागणिया गायन की परंपरा यौवन पर हैं वहीं गैर नृत्यों की धूम मची हुई है। महूए की मादक गंध भी जहां-तहां हवाओं में घुलने लगी है।
प्रतिध्वनित होने लगी लोक वाद्यों की धुनें
आदिवासी बहुल दोनों जिलों में होली के दो दिन पहले से ही गांवों में देर रात तक चौराहों पर विभिन्न समुदायों और वर्गों के लोगों द्वारा उल्लास का इज़हार करने कई-कई ढोल, कौण्डों और अन्य लोक वाद्यों की तान दूर-दूर तक फैलकर पहाड़ों से प्रतिध्वनित होने लगी है। वागड़ के कई गांवों मेें होली के बाद तक इन लोक वाद्यों का सामूहिक वादन जारी रहेगा। लोगों का पुराने समय से विश्वास चला आ रहा है कि होलिकाग्नि से तपे बालकों की व्याधियां एवं अनिष्ट समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा होलिका दहन स्थलों पर सामाजिक लोक रस्म ढूण्ढ के सामूहिक आयोजनों की धूम भी रहती है।
बड़े-बुजुर्ग भी आगामी वर्ष में आरोग्य एवं अनिष्ट शमन की कामना से जलती होली की विषम संख्या में परिक्रमा करते हैं। घर-परिवार में सामूहिक भोज, बतौर उपहार वस्त्र भेंट करने आदि के आयोजन इन दिनों होली के दिन या आस-पास जारी रहते हैं। लोग जलती होली में नारियल डाल कर इसे वापस निकालते व प्रसाद बांटते हैं। समूचे वागड़ अंचल में पिछले दो-चार दिन से इस पुरातन लोक रस्म की रंगत दिखाई दे रही है।
यों बंटती है मिठास
वागड़ अंचल भर में होली सिर्फ मदमस्ती भरे रंगों और उल्लास के रंगों का त्योहार ही नहीं है बल्कि सामाजिक सौहार्द और वसुधैव कुटुम्बकम् का पैगाम गुंजाने वाला वह पर्व है जिसमें सामाजिक सद्भाव की मिठास बंटती है। गांवों में आज भी होली के दिनों में घर-घर गुड़ बांटने की प्रथा चली आ रही है। पहली संतानोत्पत्ति और ढूण्ढ की खुशी में सभी को हिस्सेदार बनाने ढूण्ढ वाले बालक के परिवार की ओर से घर-घर आधा किलो/एक किलो या निश्चित मात्रा में गुड़ वितरित किया जाता है।
हर्बल रंग
रसायनिक एवं हानिकारक रंगों के प्रचलन के दौर में आज भी ग्राम्यांचलों में कई लोग ऎसे हैं जो वानस्पतिक रंगों का प्रयोग करते हैें। ये लोग टेसू और अन्य वृक्षों के पुष्पों से बने रंगों का प्रयोग करते हैं।
फागोत्सव और लोक लहरियों का ज्वार
वाग्वर अंचल भर में होली और इलाकों की तरह सिर्फ एक-दो दिन चलकर सिमट नहीं जाती बल्कि होली के रंग पखवाड़े भर तक धूम मचाते हैं। मन्दिरों में फागोत्सव के आयोजन शुरू हो चुके हैं जो देर रात तक चलने लगे हैं। होली के सौन्दर्य-श्रृंगार भरे भजन-कीर्तनों के आयोजन भक्तों को भाव-विभोर करने लगे हैं। इसके साथ ही चंग की थाप पर पूरे माहौल में फागुनी अन्दाजों से भरी-पूरी लोक लहरियाँ घुलती रहकर लोक जीवन को आह्लादित करने लगी हैं।
डूंगरपुर जिले के नादिया गांव में होली के मौके पर खेला जाने वाला पेरणिया नृत्य देखने लायक होता है। इसमें रंग-अबीर और गुलाल की बौछारों के साथ जमकर नाच-गान होता है। इसमें बड़ी संख्या में युवक-युवतियां हिस्सा लेते हैं।
सुकाल ने बरसाया रंगों का उल्लास
लगातार चार साल से भीषण सूखे और अकाल के बाद इस बार अच्छी वर्षा और बढ़िया फसलों ने होली के उत्साह को बहुगुणित कर रखा है। सर्वत्र सुकाल की वजह से आदिवासियों एवं ग्रामीणों में होली को लेकर खासा जोश बना हुआ है और पर्वतीय पालों-ढाणियों, फलों से लेकर गांव, कस्बों और शहरों में लोक लहरियों से पूरा परिवेश होली के रंग बरसा रहा है। समूचे वनांचल में होली पर ढेरों अनूठी परंपराएं युगों से विद्यमान रही हैं जिनका दिग्दर्शन करना ही रोमांच भरा है। लेकिन प्रचार-प्रसार के अभाव में यह राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच से दूर रही है।
कल्पना डिण्डोर
लेखिका राजस्थान के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में अधिकारी हैं