साधना और सत्संग भी हैं जरूरी
मनुष्य जन्म में आने के उपरान्त मानवीय मूल्यों, आदर्शों, लोकानुशासन एवं मर्यादाओं का पालन जरूरी है। इन्हीं परंपरागत पंथों पर चलते रहकर ही अपने साध्य को पाया जा सकता है। फिर चाहे साध्य अपने लौकिक एवं अलौकिक कार्य हों या ईश्वर से साक्षात्कार अथवा आत्मतत्व की प्राप्ति।
स्वयं ईश्वर भी जब धर्मसंस्थापनार्थाय अवतार लेते हैं तब वे भी मानवोचित मर्यादाओं और अनुशासन से बँधे रहते हैं और उनके जीवन से संबंधित कर्मयोग को लीलाओं में परिभाषित किया जाता है। इन लीलाओं के श्रवण, मनन तथा रसास्वादन में हमें आनंद की अनुभूति इसीलिये होती है क्योंकि यह सब कुछ एक के बाद उस तरह चलता रहता है जो मनुष्य के जीवन के लिए अभीप्सित होता है अथवा पौराणिक काल में घटित हो चुका होता है। कर्मयोग में सफलता की कामना, ऎषणाओं की पूत्रि्त और आत्मसाक्षात्कार से लेकर ईश्वरतत्व का अनुभव करने के लिए साधनाओं और भक्ति का सहारा लिया जाता रहा है। निष्काम भक्ति हमें ईश्वर और आत्मदर्शन की प्राप्ति कराती है और विराट विश्व व्यापार का अनुभव हम अपने भीतर करने में समर्थ होते हैं जबकि सकाम भक्ति करने वालों के लिए लौकिक जीवन में सफलता का अनुभव बना रहता है।
चाहे किसी भी लक्ष्य से भक्ति या साधना का मार्ग अपनाया जाए, वह अपनी लक्ष्य प्राप्ति के प्रति तीव्रता, श्रद्धा की सघनता और समर्पण भावना के अनुपात में सफलता प्रदान करते ही हैं लेकिन भक्त और साधना मात्र से पूर्णता को प्राप्त किया जाना संभव नहीं है। क्योंकि जिस जगत में रहकर हम सिद्धि, साधना या भक्ति का चरम लक्ष्य पाने को उतावले रहते हैं उस जगत के व्यवहार को समझने से लेकर जगत के प्रति उपकार की भावना रखकर निष्काम कर्मयोग को भी अपनाने की आवश्यकता होती है तभी जीवन और जगत की यथार्थता का शाश्वत बोध होना संभव है। इस बोध को जाने बगैर हम कितने ही घंटों साधन, भजन-पूजन करते रहें, अपने लक्ष्य में पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इस मार्ग पर सबसे बड़ा रोड़ा आता है अहं। जो लोग साधना और भक्ति, भजन-पूजन-यजन करते हैं उनमें और कुछ बुराई आ पाए या नहीं, मगर साधना-भक्ति का अहंकार सबसे पहले उन्हें घेर लेता है और यहीं से उनकी द्वीप की तरह रहने की मनोवृत्ति का बीज स्थापित हो जाता है जो उत्तरोत्तर वटवृक्ष बनकर साधक या भक्त को घेर लेता है।
इस अहंकार की निवृत्ति और जगत के सनातन सत्य से रूबरू होने के लिए जरूरी है कि हम जगत के समीप रहकर सारे व्यवहारों को जानें और वह भी निर्लिप्त, अनासक्त रहकर। ताकि जगत के वास्तविक स्वरूप की झलक पा सकें जो हमें अपने साधना या भक्ति मार्ग से लिप्त रखे रहने के लिए जरूरी है। यह जगत का व्यवहार ही है जो जगत के प्रति हमारी जिज्ञासाओं का शमन करता है और हमारे भीतर जगत के प्रति तीव्रतर और शाश्वत वैराग्य के स्तंभों को मजबूत करता रहता है। भक्त और साधक को अपने लक्ष्यों में शत-प्रतिशत सफलता के लिए सेवा और परोपकार का मार्ग अनिवार्य रूप से अपनाने की जरूरत है। साधना-भक्ति और जगत कल्याण अर्थात सेवा-परोपकार की वृत्तियाँ समानान्तर चलती रहने पर हमारे अहंकार का ग्राफ धीरे-धीरे नीचे उतरता रहता है।
सेवा की रचनात्मक प्रवृत्तियों में रमे रहने से हमारे मन के कलुष, अहंकार और अहमन्यता के भाव समाप्त हो जाते हैं और नर में ही नारायण की अनुभूति होने लगती है और एक समय वह स्थिति आ ही जाती है जब जगत के प्रत्येक प्राणी के प्रति अपने मन में औदार्य, सहिष्णुता, राग और आत्मीयता के भाव अपने आप उमड़ने और उन्मुक्त होकर छलकने लगते हैं। यह स्थिति ब्रह्मभाव को प्रतिष्ठित कर देती है। निरन्तर सत्संग हमारे भीतर के दैव तत्वों और सहजात मौलिक तत्वों को परिपुष्ट करता रहता है, हमारी शंकाओं और आशंकाओं का समय पर समाधान हो जाता है तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता रहता है। यह स्थिति साधना और भक्ति के शिखर तक पहुंचने से ठीक पहले वाली होती है। साधना और भक्ति कितनी ही तीव्र, समय और श्रम साध्य तथा व्यापक क्यों न हों, सत्संग और सेवा, परोपकार, जगत कल्याण की भावनाओं का व्यावहारिक आदर्श अपनाए बगैर हम सफल नहीं हो सकते। सेवा और सत्संग के बिना हम जो भी साधना-भक्ति करते हैं वह अन्तततोगत्वा व्यभिचारी हो जाती है और हमें अधोगामी बना डालती है।
– डॉ. दीपक आचार्य