हमारे पर्वों, त्योहारों और उत्सवों से मौलिकता, आंचलिक परंपरा और श्रद्धा के भाव गायब होते जा रहे हैं और इन पर्व-उत्सवों का स्वरूप मनमाने तौर पर परिवर्तित होने लगा है। हर पर्व, उत्सव और त्योहार को अब धंधों से जोड़कर देखा जाने लगा है अथवा ये अपने आप में धंधे ही बन चले हैं।
लोगों की श्रद्धा और आस्थाओं को भुनाने वाले लोग अब हमारे धर्म, संस्कृति और सामाजिक क्षेत्रों के आयोजनों, उत्सवों और धर्म धामों को भी बिजनैसी मानसिकता से देखने लगे हैं और ऎसे गोरखधंधों में रमे हुए हैं जिनके जरिये कमाई, आकर्षण और श्रद्धालुओं का दोहन-शोषण आकार लेता रहा हैै।
धर्म और संस्कृति अमीरों और अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए ही नहीं है बल्कि असली धर्म यही है कि गरीब से गरीब और साधनहीन व्यक्ति भी उनका उसी प्रकार समान भाव से आनंद या सान्निध्य प्राप्त कर सके, जैसा कि और लोग सहजता के साथ प्राप्त करते रहे हैं।
जब तक हमारी परंपराओं और उत्सवी धाराओं में धंधेबाजी के भाव नहीं थे तब तक पूरी मौलिकता, आस्था और श्रद्धा की गंध बनी हुई थी। हमारे बाप-दादाओं ने जो परंपराएं कायम की हैं उनमें पर्व-उत्सव और त्योहारों को मनाने में न छोटे-बड़े का भेद है, न गरीब-अमीर का, न स्त्री-पुरुष का, और न ही और किसी प्रकार का भेद।
श्रद्धालु अपने आप में श्रद्धालु ही है जिसका एकमेव उद्देश्य पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं का पूरी शुद्धता और शुचिता के साथ उसी प्रकार निर्वाह करना होता है जैसा कि पीढ़ियों से चला आ रहा है। इसमें न कोई पैसा चाहिए, न खर्चीले आयोजनों की तड़क-भड़क।
हमारे सारे पर्व प्रकृति और परिवेश से जुड़े हैं जिनमें श्रद्धा और आस्था के साथ ही पंचतत्वों की पूजा-अर्चना और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति के भाव समाहित हैं। लेकिन अब प्रकृति और पंच तत्वों की बजाय मुद्रा तत्वों और नई परंपराओं का समावेश होने लगा है और इन सभी के पीछे उन लोगों का हाथ है जो श्रद्धा और आस्था को भुनाकर पैसे कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। आजकल कई सारे धार्मिकों की बाढ़ आयी हुई हुई है जो सारे आडम्बरों और पाखण्डों में नहाते हुए धर्म क्षेत्रों में अखाड़ची बने हुए हैं।
इन लोगों ने न भगवान को छोड़ा है, न धर्म और परंपराओं को। इन लोगों पर व्यवसायिक मानसिकता इस कदर हावी है कि ये धार्मिक-सांस्कृतिक और लोक उत्सवी परंपराओं में भी धंधों का जुगाड़ बिठा ही लेते हैं। दशामाता पर्व भी उन परंपरागत पर्वों में शामिल है जिनमें श्रद्धा और आस्था के भावों की जाने कितनी धाराएं बहती हैं और समाज जीवन को नई ऊर्जा और ताजगी देती हैं।
दशामाता की लोक परंपराओं में धागा पूजन, व्रत, कथा श्रवण, पीपल पूजन-परिक्रमा आदि की प्राचीन परंपराओं का जो सार्वजनिक स्वरूप कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे सामने हुआ करता था उसमें अब धंधेबाजों ने नई परंपराओं को जोड़कर प्रदूषण घोलने का काम किया है।
दशामाता जो पहले लोगों के हृदय में स्थान पाती थी और दशामाता के दिन सुख-सौभाग्य एवं समृद्धि की कामना से जो परंपराएं सामने आती थीं उसे अब धंधेबाजों ने विकृत कर दिया है और लोगों की श्रद्धा का दुरुपयोग करते हुए दशामाता के मन्दिर बना दिए हैं।
और तो और धूत्र्तता ने इतनी हदें पार कर दी हैं कि कई सारे लोगों के बारे में सुना जाता है कि वे इतने महान सिद्ध और तपस्वी हैं कि उन्हें दशामाता के भार (भाव या पर्चा ) तक आते हैं। ऎसे में हमारा दशामाता का पर्व परंपरागत पहचान खोकर व्यवसायिक विकृतियों से घिर कर रह गया है। जहाँ श्रद्धा और आस्था के भाव गौण होते जा रहे हैं और दशामाता के नाम पर श्रद्धालुओं की जेब से कितना कुछ निकलवा सकते हैं, उसी की तरह सभी का ध्यान है।
पुराने जमाने में धर्म-संस्कृति और आस्थाओं का जो स्वरूप सामने था तब भी किसी ने न दशामाता की मूर्ति बनाई, न किसी को माताजी के भार ही आते थे। किसी धर्म शास्त्र में दशामाता की मूर्ति स्थापित करने का कोई विधान नहीं है लेकिन पण्डितों और धर्म के नाम पर धंधा चलाने वाले लोगों ने मूर्ति प्रतिष्ठा से लेकर दशामाता के नाम पर अनुष्ठानों, मंत्रों और स्तुतियों, यंत्रों तक का निर्माण कर लिया है।
असल में देखा जाए तो सामाजिक अवदशा के लिए जितने धंधेबाज लोग जिम्मेदार हैं उनसे कहीं ज्यादा कर्मकाण्ड के नाम पर कमा खा रहे पण्डित जिम्मेदार हैं। हालांकि आज भी कई सारे पण्डित और प्राचीन विद्याओं के ऎसे खूब जानकार हैं जो धर्मसंगत और शास्त्र सम्मत कार्य ही करते-करवाते हैं चाहे सामने वाला कितना ही लोभ-लालच या प्रतिष्ठा देने वाला क्यों न हो, ये लोग वही करते हैं जो धर्म संगत होता है। जहाँ कहीं कोई सी अधार्मिक बात होने पर ये सिद्धान्तवादी लोग अपने आप उस काम से पलायन कर जाते थे।
पर आजकल ऎसा रहा नहीं। हर कहीं धंधेबाजी का गोरखधंधा सामने आ रहा है जहाँ पैसा या प्रलोभन देकर किसी से कुछ भी करवाया जा सकता है। इसी सिद्धान्तहीनता और अधार्मिक आचरणों की वजह से हमारा समाज और क्षेत्र कितनी ही विषमताओं और समस्याओं से घिरता जा रहा है।
हम सभी लोगों को यह समझने की जरूरत है कि जो हमारी परंपराएं रही हैं वे पूरी तरह वैज्ञानिक, समाजवादी और धर्म संगत रही हैं जिनका पूरी मौलिकता के साथ निर्वाह होना चाहिए। इसमें धंधेबाजी मानसिकता, प्रदूषण या विकृति समावेश आत्मघाती ही नहीं बल्कि मानवजाति तथा क्षेत्र में आपदा लाने वाला होता है।
दशामाता उन सभी लोगों को सदबुद्धि प्रदान करे जो दशामाता के नाम पर कमाने के लिए भय, प्रलोभन और जाने कैसे-कैसे धंधों में रमे हुए हैं। दशामाता पर्व पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ….. दशामाता घर-परिवार से लेकर समाज और देश में सुख-समृद्धि और सौभाग्य की वृष्टि करे… यही कामना है।
– डॉ. दीपक आचार्य