व्यष्टि से लेकर समष्टि तक जो कुछ हो रहा है वह क्षय-अक्षय के क्रमिक परिवर्तन से जुड़ा हुआ है। तत्वों के लिहाज से देखें तो क्षय-अक्षय कुछ नहीं होता बल्कि तत्वों के विभिन्न रूपों में रूपान्तरण की ही प्रक्रिया ही है जो कभी सृष्टि का अहसास कराती है, कभी विध्वंस का। इसी प्रकार आत्मा भी है जिसका कभी क्षरण नहीं होता। जीवों का शरीर ही नए-नए रूपों में आता रहता है।
शरीर का क्षय अवश्यंभावी है लेकिन आत्मा अजर-अमर और अक्षय है। इसी प्रकार कई सारे कर्म भी ऎसे होते हैं जो श्रेष्ठतम होते हैं और जिनकी गंध अक्षय कीर्ति प्रदान करती है तथा युगों तक अक्षय बनी रहती है। हमारे पुरखों, महापुरुषों और अवतारों ने जो कुछ किया उसे हम आज भी शिद्दत के साथ याद करते हैं। उनका स्मरण ही ऎसा है कि अपने भीतर अपार ऊर्जा और ताजगी का संचरण कर देता है।
वास्तव में देखा जाए तो अक्षय कर्म वही है जो कालजयी हो तथा सृष्टि एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हो। सृजन के इतिहास को सदैव याद रखा जाता है और उसके प्रति आदर-सम्मान एवं श्रद्धा के भाव भी होते हैं। आज उन लोगों की याद भी नहीं आती जो अपने लिए जीते रहे और अपना ही अपना देखते रहे। ऎसे असंख्य लोग आये और गये, न हम उन्हें कभी याद करते हैं, न कभी वे हमें याद आते हैं।
हम सभी लोग बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं लेकिन ऎसा कोई काम नहीं कर पा रहे हैं जिससे कि हमारा अक्षय स्मरण बना रहे और युगों तक हम याद किए जाते रहें, प्रेरणा संचरण की बात तो बहुत दूर ही है। इस मायने में हम लोग टाईमपास जिंदगी गुजारने के सिवा ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
जीवन, समय और कर्म के दो ही हेतु हैं – क्षय या अक्षय। इनका परस्पर संबंध इतना अधिक है कि समय निरन्तर क्षय होता जा रहा है। समय का जो लोग सदुपयोग कर लिया करते हैं उनके लिए अक्षय फल का सृजन हो जाता है जबकि जो लोग इसे यों ही गँवा दिया करते हैं उनका सब कुछ क्षय होता रहता है।
वस्तुतः हमारा हर क्षण क्षय होता जा रहा है लेकिन इसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों का समुचित उपयोग वैश्विक कल्याण, परमार्थ और निष्काम भाव से किया जाए तो इसका अक्षय फल प्राप्त होता है जबकि इनका मनमाना और मनचाहा दुरुपयोग समय के साथ क्षरण ही क्षरण करता जाता है।
बात बिंदु की हो या सिंधु की, जिस किसी का दुरुपयोग होगा, वह समाप्त हो ही जाने वाला है। पंच तत्वों, इंसानी ताकत या मानसिक संकल्प की बात हो या फिर और कोई विषय। हर मामले में क्षय-अक्षय का सिद्धान्त ही काम करता है। समय की बुनियाद पर सुनहरे स्वप्न जब आकार पाते हैं तक अक्षय कीर्ति के भावों का जागरण हो जाता है। किसी व्यक्ति या स्वार्थ के प्रति किया गया हर कर्म क्षय होगा ही क्योंकि उसे वैश्विक कल्याण की अर्थिंग प्राप्त नहीं हो पाती है, जबकि जो काम हम निष्कपट व निष्काम भाव से औरों के लिए करते हैं उसमें परमार्थ की सुगंध व्याप्त होती है और यह ऎसी है कि आने वाली कितनी ही पीढ़ियों तक को आनंद प्रदान करती है।
तन-मन और धन को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम इन सभी का सदुपयोग करें, मितव्ययी उपयोग करें और जगत के लिए प्रयोग करें। प्रकृति और परिवेश के उपहारों को भी सहेज कर रखने की भावना हममें होनी चाहिए। हमारे जीवन का कोई सा पहलू ऎसा न हो कि जिसमें हमारा ध्यान भोगवादी क्षरण की ओर ही बढ़ता रहे और एक दिन ऎसा आ ही जाए कि हमारा सम्पूर्ण क्षरण हो जाए।
हमारी समस्त प्रकार की शक्तियों का हम यथासंभव संयम के साथ उपयोग करें और सर्वाधिक ध्यान इस बात पर दें कि इनका किसी भी प्रकार से कोई क्षय न हो ताकि हमारी ऊर्जाएं लंबे समय तक बरकरार रहें और इनकी सुगंध युगों तक बहती रहे। इसके लिए जीवन में त्याग और संयम को प्रधानता दिए जाने की जरूरत है।
आज का अक्षय तृतीया का दिन हमारे लिए यही संदेश देता कि हम अपने जीवन में ऎसे कर्म करें जिनका अक्षय पुण्य हो, सुगंध भी अक्षय हो तथा हमारी कीर्ति भी। टाईमपास जिंदगी जीने वालों को इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिलती। भगवान परशुराम और शिवाजी जयन्ती का संदर्भ अक्षय तृतीया से जुड़ा हुआ है कितना सार्थक तथा संदेशप्रदाता है। सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ ….
डॉ. दीपक आचार्य