उदयपुर। जैन धर्म में संथारा पर रोक लगाना न सिर्फ अनुचित बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण है। यह प्रथा जैन धर्म ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म से चली आ रही है। संथारा लेना हाल ही के वर्षों से शुरू नहीं हुआ बल्कि हिन्दू धर्म के ऋषि मुनियों की चिरकाल से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है। फिर क्यों सिर्फ जैन धर्म की संथारा प्रथा पर रोक लगाई गई है। भारतीय दंड संहिता (इंडियन पेनल कोड) में भी इसे रोकने का कोई कानून नहीं है। संथारा तो महाप्रस्थान के पथ पर जाने की एक मान्य प्रक्रिया है।
कुछ ऐसे ही तथ्य पत्रकारों के समक्ष रखे तेरापंथ धर्मसंघ के मुनि राकेष कुमार ने बुधवार को। उन्होंने अणुव्रत चौक स्थित तेरापंथ भवन में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि जीवन के अंतिम समय में मृत्यु को महसूस कर विधिपूर्वक अनषन के साथ शरीर, कषाय, इच्छा एवं विकारों को कम करते हुए उसका सामना करता है। यह शरीर शुद्धि एवं आत्मकल्याण के साथ मोक्ष प्राप्ति के लिए किया जाता है। पत्रकार वार्ता में सुधाकर मुनि, मुनि दीप कुमार सहित तेरापंथी सभा के अध्यक्ष राजकुमार फत्तावत भी मौजूद थे।
राकेष मुनि ने कहा कि संथारा आज के दिमाग की उपज नहीं है जिस पर व्यर्थ बहस कर विवाद खड़ा किया जा रहा है। यह सदियों पुरानी परम्परा है। भगवान ऋषभदेव ने भी संथारापूर्वक अपना जीवन त्याग दिया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 की व्याख्या करें तो जाति, भाषा और संस्कृति के आधार पर अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय भी इसकी पुष्टि करता है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म से विभक्त नहीं हुआ है बल्कि यह आदि धर्म है जिसकी अपनी स्वीय विधि और रूढ़ि है। अनुच्छेद 25 से भी स्पष्ट है कि लोक व्यवस्था, सदाचार के अधीन रहते हुए नागरिक को अपने धर्म और संस्कृति के अनुरूप आचरण करने की स्वतंत्रता है।
उन्होंने कहा कि सती प्रथा और संथारा में बहुत अंतर है। सती प्रथा एक कुप्रथा है जिसमें पति के लिए पत्नी को शरीर त्यागना ही पड़ता था। इसके लिए पत्नी बाध्य होती थी और विषेष यह कि यह सिर्फ स्त्रियों के लिए ही होती थी। संथारा में ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती। इसी प्रकार व्यक्ति आत्महत्या निराषा, क्रोध, भावावेष और आवेग के कारण करता है। यह सांसारिक कारणों से होता है जबकि संथारा सांसारिक कर्तव्यपूर्ण करने के बाद शांत चित्त, पूर्ण जागरूक अवस्था, ज्ञान के साथ सोच-समझकर करने वाली प्रक्रिया है जो आध्यात्मिक कारणों से की जाती है। इसलिए इसे आत्महत्या या इच्छा मृत्यु के साथ जोड़ना बिल्कुल भी उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म में ऋषि मुनियों के समाधि लेने की परम्परा रही है। स्वयं भगवान राम ने जल समाधि ली थी। आचार्य विनोबा भावे ने भी अंत समय में अन्न-जल का त्याग कर दिया था। हिन्दुओं में काषी करवत एवं अमरकंटक करवत मृत्यु को गले लगाने के ज्वलंत उदाहरण हैं।
मुनि सुधाकर ने कहा कि उच्च न्यायालय का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण, अपमानजनक और अज्ञानता का परिचायक है। संथारा आत्महत्या नहीं अनासक्ति का मंत्र है। संथारा सती प्रथा नहीं आत्मदर्षन की प्रक्रिया भगवान फैसला देने वालों को सद्बुद्धि दे।
सभाध्यक्ष राजकुमार फत्तावत ने बताया कि समाधिमरण का विधान जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए जैन आगमों में उपलब्ध है। समाधिमरण में मृत्यु पर मनुष्य का शासन होता है जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। समाधिमरण के भी दो भेद सागारी संथारा और सामान्य संथारा माने गए हैं। समाधिमरण मरणाकांक्षा नहीं है और न ही आत्महत्या। आत्महत्या व्यक्ति क्रोध के वषीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों को गहरी चोट पहुंचने पर, लेकिन ये सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएं हैं जबकि समाधिमरण तो चित्त की समत्व की अवस्था है। इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता।