गन्दे पानी के उपयोग से सब्जियां व फसल उत्पादन आत्मघाती
दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया तथा राजस्थान के मध्य सिस्टर स्टेट समझौता
उदयपुर। उदयपुर के लिए चिन्ता का विषय है कि जहां चिकलवास व बेदला पुलिया तक हानिकारक रसायनों की उपस्थिति नगण्य है वहीं आयड़ पुलिया, एफसीआई पुलिया तथा मादड़ी औद्योगिक क्षेत्र में आयड़ के पानी में कतिपय रसायनों की मात्रा चिन्ता के स्तर तक पहुँच चुकी है। यह निष्कर्ष विश्व प्रसिद्ध जल वैज्ञानिक सीएसआईआरओ ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख वैज्ञानिक डा. राय कूकणा ने मंगलवार को अन्तर्राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रस्तुत किया।
कार्यशाला का आयोजन विद्या भवन महाराणा प्रताप कृषि विष्वविद्यालय, वोलकेम इण्डिया लिमिटेड, वेस्टर्न सिडनी यूनिवरसिटी, सीएसआईआरओ आस्ट्रेलिया द्वारा क्रोफर्ड फण्ड के सहयोग से किया जा रहा है। विद्या भवन पॉलिटेक्निक में डा. कूकणा ने कहा कि विभिन्न प्रकार की एन्टीबायोटिक दवाईयां, (सल्फामिथेक्सीजोल, एजिट्रोमाइसिन, क्लेरिथ्रोमाइसिन, ट्राइमेथोप्रिम, दर्द निरोधक आइब्रूप्रूफेन) एस्ट्रोजेन हारमोन, मिर्गीरोधी कार्बामिजापिन आयड़ नदी के पानी में बहुतायत में है। यह दवाइयां, हारमोन तथा अन्य उपस्थित जीवाणुरोधी रसायन मिलकर सब्जियों, पेयजल (भूजल) के माध्यम से मानव शरीर में पहुँचते हैं। यह सभी मिलकर रोगों से लड़ने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर रहे हैं। निकट भविष्य में यदि कोई महामारी हुई तो मौजूदा एन्टीबायोटिक दवाईयां बेअसर साबित होगी।
व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किये जाने वाले डिटर्जेंट, सौन्दर्य प्रसाधन उत्पादों, डियोडरेंट, परफ्यूम, प्लास्टिक बॉटलों में मौजूद विसफिनोल ए, अलकाइल फिनोल व अन्य फिनोलिक कम्पाउण्ड (नोनाइल फिनोल, ऑक्टाइल फिनोल) मानव शरीर में प्राकृतिक हारमोनों जैसा स्वरूप धारण कर लेते हैं और शरीर की प्राकृतिक क्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। इससे पुरुषों की प्रजनन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है व उनमें महिलाओं के लक्षण पैदा होते हैं। तरल साबुन, शैम्पू व पेस्ट में उपस्थित कुछ रसायन थॅायरॉइड असन्तुलन पैदा करते हैं। जीवाणुरोधी टाइक्लोसेन व ट्राइक्लोकाबेन जो कि कई प्रकार के साबुन, शैम्पू, टूथपेस्ट व एन्टीसेप्टिक क्रीम में उपस्थित हैं वह शरीर में हारमोनल असन्तुलन कर रहे विश्व के कई देशों में उपरोक्त में से कई रसायनों पर पूर्ण अथवा आंशिक प्रतिबंध है पर आज भारत में ये धड़ल्ले से उत्पादों में मिलाये जा रहे हैं।
विश्व प्रसिद्ध जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ डा. क्रिस डेरी ने कहा कि प्राथमिक उपचार के बिना गन्दे पानी के उपयोग से सबिब्जयां व फसल उत्पादन आत्मघाती है। गन्दे पानी को यदि सिंचाई के लिए काम में लिया जा रहा है तो प्राथमिक उपचार के पश्चात ऐसी ही सब्जियां उगाई जाये जिन्हें बिना पकाये नहीं खाया जा सकता। उन्होने कहा कि उत्पाद के परम्परागत तरीके जैसे- एक गढ्ढे में पानी को आठ दस दिन तक भरा रखने के बाद उसे सिंचाई में काम में लेने से इस समस्या को काफी हद तक दूर कर सकते हैं।
भारत के लिए भूजल पुर्नभरण की गाइड लाइन बनाने में संलग्न विश्व प्रसिद्ध भूजल पुर्नभरण विशेषज्ञ, डा. पीटर डिलन ने कहा कि हाल ही में दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया तथा राजस्थान के मध्य सिस्टर स्टेट समझौता हुआ है। डा. ढिलन ने विश्वास व्यक्त किया कि इस समझौते से राजस्थान में कृत्रिम भूजल पुर्नभरण की नीतिगत व्यवस्था स्थापित करने में वे अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर सकेगें। डा. डिलन ने कहा कि भूजल पुर्नभरण वैज्ञानिक व तकनीकी तरीके से होना चाहिये ताकि भूजल की गुणवत्ता बनी रहे। उल्लेखनीय है कि राजस्थान में भूजल पुर्नभरण की विज्ञान सम्मत नीतिगत व्यवस्था व तरीके उपलब्ध नहीं है। उदयपुर, कोटा तथा बारां में हुए अध्ययन को प्रस्तुत करते हुए सी.अी.ए.ई. के डा. आर.सी. पुरोहित, डा. के.के. यादव व मनजीत सिंह ने कहा कि पालक,फूलगोभी व अन्य पत्तेदार सब्जियों में लेड व केडमियम की उपस्थिति दर्ज हुई है। कार्यशाला में मानसी भाल ने जयपुर के मानसागर झील में प्रदूषण से हो रही दुर्दशा व किसानों पर प्रभाव का वर्णन किया।
भुज के संजय कुमार, जागृति शाह श्याम डवान्डे ने जनसमुदाय की सहभागिता को वेस्ट वाटर समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण बताया। इन्स्टीट्यूट ऑफ लाइफ साइंसेज के डा. अजय काकरसेती ने कहा कि पॉल्ट्री फॉर्म से मिलने वाले मुर्गे- मुर्गियों के पंखों से औद्यौगिक वेस्ट में मौजूद ऑइल कम्पाउण्ड व अन्य प्रदूषण को हटाया जा सकता है।