कविराव मोहन सिंह स्मृति राष्ट्रीय व्याख्यान
उदयपुर। प्रसिद्ध कवि चिंतक और साहित्यकार प्रो. नन्द किशोर आचार्य ने हिंसा के विविध रूपों की व्याख्या करते हुए बताया कि हिंसा मनुष्य का स्वभाव नहीं है। यह वैसे ही है जैसे शरीर बीमार पड़ जाये। बीमारी शरीर का स्वभाव नहीं होती। उन्होने जोर देते हुए कहा कि अहिंसा ही मनुष्य का मूल स्वभाव है।
वे यहां जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के आईटी सभागार में कविराव मोहन सिंह पीठ की ओर से आयोजित राष्ट्रीय व्याख्यान में सम्बोधित कर रहे थे। व्याख्यान का विषय समकालीन परिदृश्य, हिंसा के रूप और सहिष्णुता था। प्रो. आचार्य ने हिंसा के रूप गिनाते हुए बताया कि प्रत्यक्ष हिंसा से अधिक मारक और समाज के लिए हानिकर अप्रत्यक्ष हिंसा है। उन्होने बताया कि आत्म विकास में बाधा पैदा करना हिंसा का ही एक रूप है। उन्होने विश्व में चल रहे हथियारों के कारोबार केा इंगित करते हुए बताया कि सबसे बड़ा व्यापार यही है और इसके बढ़ने के साथ साथ युद्धों की संख्या भी बढती जा रही है। उन्होंने बताया कि उत्पादन में वृद्धि ही विकास है जिसके लिए कृतिम जरूरते पैदा करने की होड़ लगी है। सरकारों को हथियार प्राप्त करने के लिए कई समझौते करने पड़ते है लेकिन आईएसआईएस को हथियार आसानी से उपलब्ध हो रहे है। प्रो. आचार्य ने कम्पीटिशन की जगह कॉपरेशन और सहिष्णुता की जगह सम्मान को स्थापित करने पर जोर दिया।
मुख्य अतिथि सुखाडिया विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जेपी शर्मा ने कहा कि समाज में जो भी सामाजिक व सांस्कृतिक वर्जनाएं हैं। अगर उन वर्जनाओं का हनन होता है तो वही से हिंसा प्रारंभ होती है। चाहे व परिवार में हो, चाहे पति व पत्नी के बीच में हो। अगर हम अपनी मर्यादाओं में सुरक्षित नहीं है तो हिंसा रूप ले लेगी।
अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत ने कहा कि शरीर में निहित जल तत्व, अग्नि तत्व को येाग से जोड़कर हिंसागत स्वभाव को नियंत्रित रखने पर जोर दिया। इसके लिए उन्होने योग को जीवन की सार्थक क्रिया बताया। इससे पूर्व प्रसिद्ध गीतकार किशन दाधीच ने कहा कि सृष्टि के आदिकाल से आज तक हिंसा विभिन्य रूपों में विद्यमान रही है तथा सभ्यता के विकास के साथ साथ इसके विकल्प भी तलाशे जाते रहे है। उन्होंने जैविक हिंसा को ही मात्र हिंसा नहीं मानते हुए हिंसा के अनेक रूपों का विवेचन किया। उन्होंने कहा कि धर्माचार्यो ने हिंसा एवं अहिंसा के बीच एक बहुत बारीक रेखा खींच दी, जिसमें उन्होने एक ही काल में बलि को हिंसा नहीं माना एवं वृक्ष की टहनी काटने तक को हिंसा मान लिया। उन्होने कहा कि यह बाजार की शताब्दी है और बाजार हिंसा का पोषक होता है।
प्रारंभ में साहित्य संस्थान के निदेशक प्रो. जीवन सिंह खरकवाल ने अतिथियों का स्वागत किया तथा कविराव मोहन सिंह पीठ के अध्यक्ष उग्रसेन राव ने कविराव मोहन सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि कविराव मोहन सिंह की जयंती पर देश के किसी वरिष्ठ सम्पादक को कविराव मोहन सिंह सम्पादकाचार्य सम्मान से नवाजा जायेगा। यह समारोह अक्टूबर में आयोजित किया जायेगा। प्रो. सीपी अग्रवाल ने भी विचार व्यक्त किए। संचालन डॉ. कुलशेखर व्यास ने किया।