अतीत के आईने से : from tha past
लीलाराम माखीजा, फोटोग्राफर व्यवसायी
हमें आज़ादी मिली वर्ष १९४७ में. फिर २९ अगस्त को पाकिस्तान के लरकाना से मैं अपने माता-पिता, भाइयों आदि के साथ उदयपुर आया. हालांकि सरकार की ओर से निशुल्क आने की सुविधा दी गयी थी लेकिन मेरे पिताजी स्वाभिमान के पक्के थे. टिकट लेकर आये. यहाँ आने के बाद फ़तेह मेमोरियल सराय में ठहरे. दो दिन वहां रुकने के बाद फिर घासघर में रुके. पिताजी ने अपने शौक फोटोग्राफी को अपना व्यवसाय बनाया. उस ज़माने में कुल जमा ३-४ जनों के पास ही मिन्ट कैमरे थे. मिन्ट कैमरे में सर पर काला पर्दा रखकर फोटो ख्नीचा जाता था. फिर सूरजपोल में लक्ष्मी आर्ट के नाम से दुकान खोली. उस समय उदयपुर में लालचंदजी, चिरंजीलालजी श्रीमाल, राजस्थान स्टूडियो के पन्नालालजी महाराजा स्टूडियो के भगवानलालजी गोठवाल यहाँ काम करते थे. उस समय कागज का नेगेटिव बनता था. कागज़ की ही कॉपी बनती थी. पोस्टकार्ड साइज़ के फोटो का एक रूपया लगता था ओर चवन्नी (चार आने) में पासपोर्ट फोटो बनता था. पूरे संभाग यानी राजसमन्द, डूंगरपुर, बांसवाडा, चित्तोडगढ़ आदि जगहों से लोग फोटो खिंचवाने यहाँ आते थे. सुबह हमारे यहाँ फोटो खिंचवाया. दिन में फिल्म देखने चले जाते. फिर वापस आकर फोटो लेकर चले जाते. वर्ष १९५३ में फिल्म पर नेगेटिव बनाना आरम्भ किया. उदयपुर में उस समय बिल्डिंगों के नाम पर उदयपुर होटल, फ़तेह मेमोरियल बी. टी. अग्रवाल, महंतजी की सराय (जहाँ अब निम्बार्क कोलेज चलता है) आदि ही थीं. शहर के चारों ओर पत्थरों की मोटी दीवार थी जिसे शहरकोट कहा जाता था. शहरकोट के सरे दरवाजे रात को बंद हो जाते थे. सुबह उठने तथा दोपहर में मध्यान्ह में दरबार की ओर से तोप चलती थी. तीन गाड़ियों में प्रतिदिन शाम को ५ बजे दरबार (तत्कालीन राजा) की सवारी निकलती थी. जग निवास तक किश्ती में दरबार की ओर से निशुल्क सैर कराई जाती थी. सैर से वापस आने के बाद दरबार की ओर से कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी. तब चांदी के सिक्के, चित्रकूट, दोस्ती लंदन प्रचलन में थे. चांदी की इकन्नी, पैसे, फोंतरिये चलते थे. एक रूपये के सोलह आने, एक आने के ६४ पैसे, एक पैसे के १९२ फोंतरिये होते थे. यहाँ उस समय एक कहावत प्रसिद्द हुई की सेर का सवा सेर मिलता है. यानी एक किलो के पैसे में सवा किलो माल मिलता है. जहाँ आज गुलाब बाग के सामने गार्डन होटल है वहां पहले रेलवे ट्रेनिंग स्कूल था. बाद में यह सुखाडिया सर्कल शिफ्ट हुआ. रेलवे ट्रेनिंग स्कूल एशिया का सबसे बड़ा इंस्टिट्यूट है. शहर के चारों ओर गेट थे. जिनमें से होकर निकलना पड़ता था. सूरजपोल, देहलीगेट, किशनपोल, ब्रह्मपोल आदि. देहलीगेट दरवाजे से कोई बारात नहीं निकलती थी क्यूंकि श्मशान जाने के लिए शव को इसी गेट से ले जाया जाता था.
उस समय बीटीए मोटरसाइकल खरीदी जिसकी कीमत साढ़े तीन हज़ार रुपये थी. पेट्रोल उस समय एक रूपया लीटर था. फिर जब बुलेट मोटरसाइकल खरीदी तब दस रुपये में आठ लीटर पेट्रोल आता था. घर में बड़े-बूढों से सीखा यही की खुद कमाओ ओर पैसे का दान करो. कहीं से आया हुआ पैसा तो कोई भी दान में दे देगा. यही उद्देश्य रहा की इमानदारी से कमाओ ओर इमानदारी से खाओ. शुरू से कर्म प्रधान ही रहा.
(जैसा उन्होंने उदयपुर न्यूज़ को बताया)