कॉलम : अतीत के आईने से
कैलाशवती व्यास, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य अग्रवाल जैन बाल मंदिर
मेरा बचपन तो उदयपुर को देखकर ही व्यतीत हुआ. उस समय तो अभिभावक लड़कियों को स्कूल भेजने में भी हिचकिचाते थे. लड़कियों के लिए तो स्कूल थे ही नहीं. बदनोर की हवेली के सामने स्थित हनुमानजी मंदिर के पास एक छोटे से नोहरे में ईसाई महिला स्कूल चलाती थी. स्कूल क्या लेकिन पढ़ाई के नाम पर वहां करीब २०-२५ लड़कियां आती थी. फीस के रूप में प्रत्येक सोमवार को दो फोंतरिये [उस जमाने के पैसे] लेती थी. मैंने पांचवी तक वहां शिक्षा ली. उसके बाद नानी गली में एक छोटा सा स्कूल था और कोलपोल में भैरूलालजी गेलड़ा स्कूल चलाते थे. उन्होंने राजस्थान महिला विद्यालय की स्थापना की जहां दसवीं तक पढ़ाई की. फिर तो घर-परिवार में व्यस्त हो गई लेकिन पति की बीमारी की वजह से मुझे घर चलाने के लिए आगे आना पड़ा. महिला मण्डल के संस्थापक दयाशंकर श्रोत्रिय की पहल पर सोलंकियों की घाटी स्थित एक स्कूल को सफलतापूर्वक चलाया. स्कूल का उद्घाटन उस समय ·लक्टर संभवत: श्री हावा ने किया. पढ़ाई में रुचि के कारण इस दौरान १९५३-५४ में क्रमशः प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रवेशिका, विद्या विनोदिनी, विशारद और साहित्य रत्न की डिग्री ली. साहित्य रत्न को स्नातकोत्तर के समकक्ष माना जाता था. नौ साल तक सोलंकियों की घाटी वाले स्कूल में रहने के बाद यहां महिला मण्डल स्कूल में काम किया. कुछ परेशानियों से महिला मंडल छोड़ दिया. १९६६ में धानमण्डी स्थित अग्रवाल जैन बाल मंदिर के ट्रस्टियों ने संपर्क किया तो मुझसे जमानत मांगी कि हमारा काफी सामान वहां पड़ा रहता है, कुछ जमानत दें. उस समय डॉ. बख्तावरलाल शर्मा से जब ये ट्रस्टी मिले तो उन्होंने कहा कि जितनी और जो भी जमानत चाहिए, मेरी ले जाइये. फिर वहां १९८२ तक काम किया.
सुखद बात यह रही कि जहां महिलाओं का घर से बाहर निकलना भी वर्जित था. यहां तक कि सब्जी भी शाम को आदमी लाया करते थे. उस समय में मैंने सर्विस की और बच्चों को पढ़ाया. शहरकोट के दरवाजे रात को तोप चलने के बाद बंद हो जाते थे। एक बार गंगू कुंड पर पूरी जाति का खाना किया था. रात को आने में देरी हो गई, लेकिन दरवाजा नहीं खोला गया. तब फतह मेमोरियल बन ही रही थी. वहां पड़े पत्थरों पर समाज के सभी लोगों ने रात व्यतीत की. दरबान घोड़े पर बैठकर दरवाजों की डेढ़ फीट लम्बी चाबी रखने महलों में जाता था और वापस सुबह लेकर आता था. उस समय शहर की नौ पोलें तथा तीन दरवाजे प्रसिद्ध थे. नौ पोलों में सूरजपोल, उदियापोल, हाथीपोल, किशनपोल, कोलपोल, अम्बापोल, चांदपोल, ब्रह्मपोल, बड़ी पोल तथा दरवाजों में दिल्ली दरवाजा [देहलीगेट], बद्धू भक्तन का दरवाजा और एक और दरवाजा प्रसिद्ध था. उस जमाने में न तो लोगों की इतनी आवश्यकताएं थी और न ही इतना कोई खर्च ·रता था. पांच से पन्द्रह रुपए वेतन मिलता था जिसमें घर आसानी से चलता था. बड़े से बड़ा हाकम हुआ तो बीस रुपए तनख्वाह. प्रतिदिन सुबह ५ बजते ही महलों से नगाड़े बजते थे जिनकी आवाज पूरे शहर में सुनाई देती थी। यह संकेत था कि ५ बज गई है. उस समय महिला कांग्रेस से भी जुड़ी. महिला कांग्रेस की उदयपुर जिलाध्यक्ष भी रही. बम्बई, बंगलौर, भुवनेश्वर के अधिवेशनों में भी भाग लिया. महिलाएं जहां घर से नहीं निकलती थी, मैं अपने साथ ४०-५० महिलाओं को अधिवेशन में साथ ले जाती थी.
शहर के बाहर पहली पक्की सड़क दिल्ली दरवाजे से कोर्ट तक की बनी. उसके बाद समोरबाग की ओर वाली सड़क बनी. यहां पहली बार रोडलाइटें लगी जिन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते थे. दिल्ली दरवाजे के बाहर वाली सड़क की स्थिति तो यह कि एक दिन जा रहे थे तो सड़क इतनी अच्छी लगी कि उस पर काफी देर तक लोटे. इतनी बढिय़ा सड़क पहली बार जो देखी थी. सड़कों के बीचों-बीच बीचों-बीच नाली होती थी जिसमें से घरों का पानी बहता था. नहाने के लिए दूधतलाई और पिछोला थे तो पीने के पानी के लिए बावडिय़ां बनी हुई थीं. मांजी की बावड़ी, सगसजी की बावड़ी, धोलीबावड़ी आदि. धोली बावड़ी तो संगमरमर की बनी हुई थी। शनै: शनै: समय के साथ विकास के नाम पर सब कुछ खत्म कर दिया गया और आज पीने के पानी के लिए लोग संघर्ष कर रहे हैं.
[जैसा उन्होंने उदयपुर न्यूज़ को बताया]
bahut sunder…
शुक्रिया नरेशजी,
आपकी यही प्रतिक्रियाएं उदयपुर न्यूज़ को ओर अधिक बेहतर बनाने का उत्साह प्रदान करती हैं.
धन्यवाद.
its really very interesting to hear their real life story of the old people and how udaipur was in the past if only i had aladdin ka chirag i would have gone back in the past and enjoyed that life such real life events should be published from time to time enjoyed reading
Proud of you Nani….this is my grandmother’s interview….miss u a lot