राजस्थानी, गुजराती लोक साहित्य पर संगोष्ठी
Udaipur. भारत की विशालता के कारण बहुत सी भौगोलिक और सांस्कृतिक विभिन्नताएं हैं किन्तु भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं ने इसे एक सूत्र में पिरोये रखा है। इस समय आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती देश के समक्ष पाश्चात्य संस्कृति का सम्मोहन है।
ये विचार सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ ऍम के पाडलिया ने राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर, झवेरचंद मेघानी लोक साहित्य केंद्र राजकोट और डॉ. मोहनसिंह मेहता मेमोरियल ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित राजस्थान और गुजरात का लोक साहित्य, परंपरा और स्वतंत्रता विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीाय संगोष्ठी के उदघाटन के अवसर पर व्यक्त किए। डॉ. पाडलिया ने कहा कि भाषा और संस्कृति के प्रति आम व्यक्ति को संवेदनशील होने की जरुरत है।
सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी के डॉ. बलवंत जानी ने बताया कि गुजरात राज्य की स्थापना और गुजराती भाषा को मान्यता बहुत बाद में मिली किन्तु गुजराती साहित्य की रचना उससे बहुत पहले हुई। संस्कृति और साहित्य सत्ता से ऊपर होते है। डॉ जानी ने कहा की गुजराती साहित्य अकादमी ने चारणी साहित्य को आम जनता को उपलब्ध करवाने का प्रयत्न किया है। डॉ जानी ने बताया कि मुरारी बापू राजस्थानी भाषा को संवेधानिक मान्यता नहीं मिलने से बहुत दुखी है बापू ने इसकी मान्यता को आवश्यक बतलाया है।मुरारी बापू की पहल पर गुजराती साहित्य अकादमी द्वारा प्रति वर्ष एक राजस्थानी कवि को सम्मानित किया जाता है।इस अवसर पर सौराष्ट्र विश्व विधालय की पत्रिका लोक गुर्जरी का अथितियो द्वारा लोकार्पण किया गया तथा जगती जोत पत्रिका के सांस्कृतिक विशेषांक को वितरित किया गया।
मुख्य वक्तव्य देते हुए कवि, कथाकार, समालोचक डॉ. चेतन स्वामी ने कहा कि डिंगल भाषा जितनी राजस्थान में लोक प्रिय है उतनी ही गुजरात में भी है। संत दादू, शेख फरीद, इशर ने रचनाओं में स्वतंत्रता की बात की है। संत साहित्य की इस धारा में आत्म तत्व को निराकार माना है अतः ये पूर्णरूपेण स्वतंत्र है। संत और वीर में एक समानता है की वे निर्भीकता से स्वतंत्रता का बोध करते हैं। राजस्थानी और गुजराती में जीतनी समानता है उतनी किसी भी प्रादेशिक भाषाओं में नहीं है। स्वामी ने कहा की डिंगल और पिंगल भाषाओं में वीररस के काव्यों का सृजन हुआ है।
राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष वेद व्यास ने कहा कि राजस्थान में साहित्य संस्कृति के पुनर्जागरण की जरुरत है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए लोगो में जूनून पैदा करने की जरुरत है।गुजरात साहित्य अकादमी के महामंत्री हर्षद त्रिवेदी ने कहा की झवेरचंद मेघानी ने गुजरात में छितरे पड़े लोक साहित्य को संग्रह करने का कार्य किया है जो आने वाली पीढ़ी को संस्कृति व लोक साहित्य को बताने जताने में महत्वकपूर्ण होगा।
राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्याम महर्षि ने कहा कि लोक साहित्य और लोक मान्यता में बहुत बड़ी ताकत होती है।.राजस्थान में लोक साहित्य पर बहुत कार्य हुआ हुआ है।महर्षि ने कहा की अकादमी द्वारा इस वर्ष प्रदेश में राजस्थानी साहित्य और संस्कृति पर चारसेमीनार होंगे।अध्यक्ष ने आवश्यकता जताते हुए कहा की विश्व विधालयो में राजस्थानी पीठ का होना अब बहुत जरुरी हो गया है।
आरंभ में जागती जोत के संपादक रवि पुरोहित ने कहा की राजस्थान का माउंट आबू और गुजरात का जूनागढ़ राजस्थान का मरू और गुजरात का थार दोनों प्रदेशों की इस साम्यता के साथ ही लोक गीतों में भी ठाणे तो धावे आखी मारवाड़ रे…आखी गुजरात रे कहते हुए कहा कि गुजराती और राजस्थानी की रचनाओं में बहुत साम्यता है। कई कवियों की कर्मभूमि गुजरात और जन्म भूमि राजस्थान है। संचालन राजस्थानी भाषा, संस्कृति साहित्य अकादमी के सचिव पृथ्वीराज रतनु ने किया। धन्यवाद झवेरचंद मेघानी लोक साहित्य के निदेशक डॉ अम्बादान रोहादिया ने ज्ञापित किया। कार्यक्रम में साहित्यकार राजेंद्र बारहठ, गुजरात के पूर्व मुख्य सचिव बसंत भाई गडवी, गुजराती संत साहित्य के विशेषज्ञ मनोज रावल, डॉ. मोहन सिंह मेहता ट्रस्ट के सचिव नन्द किशोर शर्मा, डॉ. जयप्रकाश ज्योतिपुंज, शकुंतला सरुपरिया, डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, पुरुषोत्तम पल्लव सहित कई गणमान्य ने भाग लिया।