उदयपुर। मंत्रीजी के विश्वस्त माने जाने वाले और उनके कई चुनाव में मैनेजर की भूमिका निभाने वाले भाजपा नेता के पुत्र की छात्रसंघ चुनाव में हार जबकि मंत्रीजी ने खुद चुनाव की कमान संभाली। पार्टी कार्यालय में बैठक कर न सिर्फ पार्टी के सदस्यों बल्कि पार्षदों तक को काम पर लगा दिया। इसके बावजूद हार को उदयपुर की राजनीति में आम नहीं कुछ खास माना जा रहा है।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो मंत्रीजी ठहरे पुराने घाघ। जब लगा कि बच्चे का पैर अपने पैर से बड़ा हो रहा है और कुछ ज्या दा ही उछलकूद कर रहा है तो ठिकाने लगाने की सोच ली। पार्टी कार्यालय में बैठकें ली, पार्षदों को काम पर लगाया लेकिन उसका प्रचार करवाने, समाचार-पत्रों में छपवाने की क्याे जरूरत पड़ी। ऐसे काम तो छिपकर होते हैं।
दूसरी बात कि भाजपा नेता खुद का दूसरों के प्रति रवैया कभी सहायक नहीं रहा। वे अब तक कार्यकर्ताओं के कोई काम नहीं आए इसलिए इस बार उनके काम में कार्यकर्ताओं ने भी दिखा दिया। शारीरिक रूप से भले ही मौजूद रहे लेकिन मानसिक रूप से न तो वे तैयार थे और न ही उन्होंसने कोई काम किया।
कार्यकर्ताओं ने तो निपटाया लेकिन अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि मंत्रीजी खुद भी निपटाने में लगे रहे। अंदर की कसक क्या है, असलियत तो वे ही जानें लेकिन बताते हैं कि यूआईटी चेयरमैन पर नेताजी का नाम चलते ही मंत्रीजी को खटक गई। अच्छात बेटा, मुझे ओवरटेक करके बनोगे, बन जाओ। अब बेटे की हार के बाद नेताजी किसी को कुछ कहने लायक नहीं रहे। खुद चेयरमैन कहां बनें, जब बेटे को छोटा सा चुनाव तक तो जितवा नहीं सके। देहात के पदाधिकारियों, बड़े बड़े नेताओं को भले ही साथ लिए घूमते रहते हैं लेकिन काम तो शहर वाले ही आएंगे।