हिन्दी विभाग की राष्ट्रीय संगोष्ठी
उदयपुर। आदिवासी विमर्श कल्पना के स्थान पर तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। बिना गहन अध्ययन और सतही जानकारी के आधार पर लिखा गया साहित्य आदिवासी जनजीवन की अधूरी तस्वीर पेश करता है। वैश्वीकरण, माओवाद, नक्सलवाद के नाम पर देश के आदिवासी अंचलों में जो कुछ घट रहा है, उसकी पड़ताल जरूरी है।
ये विचार प्रसिद्ध कथाकार और आलोचक संजीव ने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में समकालीन आदिवासी विमर्श : सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में व्यक्त किए। मुख्य वक्ता के रूप में उन्होंने कहा कि सभ्य समाज के साहित्य में आदिम जातियों के संघर्ष और उनके योगदान को स्थान नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि रत्नगर्भा भारतभूमि की खनिज संपदा के लिए यहां के आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है। आदिवासी सात्विक परंपरा के संवाहक हैं। राणा प्रताप की आजादी की जंग में राणा पूंजा ने विशेष योगदान दिया है। आज के इस दौर में यह हमें सच्चे आदमी को तलाशने हैं तो उसे आदिवासी के सहज जीवन में देखा जा सकता है। वनौपज, औषधियाँ, धातुओं की खोज आदि में इस समाज का विशेष योगदान है। हमें आदिवासी के विकास व संस्कृति संरक्षण के लिए हमारे दृष्टिकोण में बदलाव करना होगा। आज आत्मालोचन होने लगा है। चीजें शुरू हो रही है और हमें उसका स्वागत करना होगा। हमें नये रचनाकारों को भी स्थान देना चाहिए। मेरा मानना है कि जो संघर्ष अनदेखा रह गया वो पहचान में आना चाहिए। रचनाकारों को आदिवासी लेखन करते समय केवल कल्पना से काम न लेकर चीजों को उनके बीच जाकर गहराई से समझना चाहिए। उन्होंने कहा कि देश की सभी समस्याओं के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण से समाधान ढूँढने की जिद करना भी व्यावहारिक नहीं है।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध कथाकार हरिराम मीणा ने कहा कि मौजूदा दौर के संघर्ष अस्मिताओं और वैश्वीकरण के द्वंद्व से प्रभावित हो रहे हैं। भारतीय स्वाधीनता संग्राम को आदिवासियों के संघर्ष से जोड़ना होगा। देश में जनजातियों के लोग सन् 1760 से ही हर प्रकार की गुलामी के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने अंडमान और झाबुआ का उदाहरण देकर बताया कि आदिवासी नए प्रकार के विकास के मॉडल को सहज ही स्वीकार नहीं करते। आदिवासी संस्कृति को समझकर ही हम समेकित विकास का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रशासनिक व्यवस्थाओं के कारण आदिवासी विकास का पूरा बजट भी खर्च नहीं हो पाता है।
उदयपुर सांसद एवं कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अर्जुनलाल मीणा ने कहा कि परंपराओं और विरासत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक संदेश दिया है जिससे आदिवासियों और स्थानीय लोगों की गौरवगाथाओं को सामने लाया जा सकेगा। उन्होंने सरकार द्वारा विरासत संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों को भी बताया।
मेवाड़-वागड़-मालवा जनजाति विकास संस्थान के उपाध्यक्ष एसएल बामनिया ने कहा कि हम आदिवासी संस्कृति के सकारात्मक पक्षों को रेखांकित करें। उन्होंने कहा कि भक्तिभाव के सनातन मूल्यों के आधार पर ही नव समाज का निर्माण संभव है। संगोष्ठी के संयोजक डॉ. मन्नालाल रावत ने कहा कि आदिवासी भक्ति साहित्य के संदेश को सभ्य समाज तक पहुँचाना आवश्यक है। डॉ. रावत ने कहा कि आदिवासी भक्तिगीतों में कर्मगति और कर्म के सिद्धांत का संदेश प्रचलित है। उद्घाटन सत्र अध्यक्ष अधिष्ठाता प्रो. फरीदा शाह ने कहा कि आज के दौर में आदिवासी साहित्य और संस्कृति पर चिंतन की विशेष आवश्यकता है। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं मंे आदिवासी कल्याण के लिए प्रावधान किए हैं किंतु उनकी क्रियान्वित उचित प्रकार से हो इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है। हमें अपनी नीतियां किसी भी प्रकार से आदिवासियों पर थोपनी नहीं चाहिए बल्कि उनका सहयोग लेकर बनानी चाहिए।
आयोजन सचिव डॉ. नवीन नंदवाना ने बताया कि संगोष्ठी में प्राप्त शोधपत्रों का आदिवासी समाज, संस्कृति और सहित्य‘ विषयक पुस्तक में प्रकाशन किया गया है। संगोष्ठी में अतिथियों ने इस पुस्तक का लोकार्पण किया। पहले दिन दो विचार सत्र हुए जिसमें संगोष्ठी प्रो. संजीव दुबे (गुजरात), डॉ. गंगासहाय मीणा (दिल्ली), प्रो. नीरज शर्मा, डॉ. ज्योतिपुंज पंड्या और प्रो. के.के. शर्मा ने विचार व्यक्त किए। संचालन डॉ. नीतू परिहार ने किया।