मंगलमय और अमंगलमय शब्दों के श्रवण का प्रभाव
आप लोगों ने अनुभव किया होगा, सुना और देखा होगा कि किसी के मुंह से खुशखबरी या हर्ष के शब्द सुनकर मनुष्य प्रसन्नता का अनुभव करता है, बल्कि राजा, श्रेष्ठी या किसी पदाधिकारी को कोई बधाई या मांगल्यसूचक शब्द बोलता है, तो वे उसे सुनकर खुशी से झूम उठते हैं और बधाई देने या खुशी के शब्द सुनाने वाले को पारितोषिक या इनाम देते हैं।
कोई-कोई राजा-महाराजा तो तीर्थंकर, केवली, अवधिज्ञानी अथवा ज्ञानी साधु या साध्वी के अपने गाँव या नगर में पधारने की खबर सुनाने वाले को बहुत बड़ा इनाम देते थे, किन्तु इसके विपरीत अमंगलकारक शब्द सुनते ही या तो वे उदास या हताश हो जाते या सुनाने वाले से झगड़ा कर बैठते, यहाँ तक कि मारपीट पर उतारू हो जाते थे। विवाह के समय दूल्हा बारात लेकर जा रहा हो, उस समय कोई मूर्ख ‘‘राम-राम सत्य है’’ या अन्य कोई अपशब्द कहे तो अमंगलसूचक समझकर उसको मारपीट कर भगा दिया जाता है। मंगलमय शब्दों और अमंगलमय शब्दों के श्रवण का अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
मंगलपाठ या मांगलिक श्रवण क्यों? अमांगलिक क्यों नहीं?
ठीक इसी प्रकार विदेश या परदेश यात्रा से पूर्व, किसी सत्कार्य के प्रारम्भ करते समय, प्रवचन प्रारम्भ करने से पूर्व अथवा किसी को किसी सत्कार्य में सफलता प्राप्त करने से पूर्व मंगलाचरण, मंगलमय महापुरुषों का नाम स्मरण, अथवा मंगलपाठ— श्रवण से अनुकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे किसी भी सत्कार्य के प्रारम्भ करते समय, या मांगलिक कार्य या उत्सव मनाते समय कोई अमंगलिक शब्द कह देता है या उसके कार्य में विध्न डालने के लिए अपशब्द कह देता है तो उसे अच्छा नहीं समझा जाता। यही कारण है कि जैन-जैनेतर प्राय: सभी धर्मसंघों में मंगलपाठ-श्रवण करने की परम्परा है। जो व्यक्ति मंगलपाठ-श्रवण के रहस्य और प्रयोजन को भलीभाँति समझता है, उसे मंगलपाठ-श्रवण से न केवल कानों को आनन्द मिलता है, अपितु उसका तन-मन-हृदय पुलकित हो उठता है। वस्तुत: मंगलपाठ-श्रवण भी धर्मश्रवण की तरह अपूर्व फलदायक है, किन्तु सबसे पहले तो यही समझना है कि मंगल क्या है, उसका स्वरूप और तात्पर्य क्या है? उसके कितने प्रकार या पहलू हैं? क्योंकि मंगल को समझने के बाद मंगलपाठ-श्रवण करने का रहस्य समझ में आ जायेगा।
सांसारिक गृहस्थ द्रव्यमंगल को विशेष महत्त्व देते हैं
सांसारिक गृहस्थ लोग प्राय: द्रव्यमंगल को विशेष महत्त्व देते हैं। किसी के विदा होते समय या विवाह आदि प्रसंगों पर अक्षत (धवल) और कुंकुम का तिलक किया जाता है, अथवा श्रीफल उसके हाथ में दिया जाता है, ताकि उसके कार्य में सफलता मिले, अथवा गुड़ से उसका मुँह मीठा किया जाता है, ताकि मधुरता से उसका कार्य सम्पन्न हो, या दही खिलाकर उसे विदा किया जाता है, ताकि दही की तरह वह निर्धारित कार्य में स्थिर हो जाये, कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न कर सके। इसी प्रकार सत्कार्य के लिए विदा होते समय उसकी माता, बहन या पत्नी अथवा पिता, भाई या कोई बुजुर्ग व्यक्ति उसे आशीर्वाद देकर या आशीर्वचन कहा करते हैं। यह है- द्रव्यमंगल की लौकिक परम्परा! द्रव्यमंगल की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत् में भावमंगल को विशेष महत्त्व दिया जाता है। द्रव्यमंगल का उपचार करने पर भी कभी-कभी अमंगल होता देखा जाता है। अत: आध्यात्मिक मनीषियों ने भावमंगल को ही विशेष महत्त्व दिया है।
धर्मरूप भावमंगल का महत्त्व और स्वरूप
भावमंगल क्या है? इसका स्वरूप और कार्य क्या है? इसे समझना आवश्यक है, तभी मंगलपाठ-श्रवण का रहस्य समझ में आ जायेगा। दशवैकालिकसूत्र के पहले अध्याय की पहली गाथा इस तथ्य का भलीभाँति उद्घाटन करती है-
धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा संजमो तवो
देवा वि तं नमंसंति, जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म उत्_ष्ट मंगल (भावमंगल) है; और वह है-अहिंसा-संयम-तपरूप। जिस व्यक्ति के अन्तकरण में धर्म (मंगल) रमा रहता है, उसे देव, (दानव, मानव, राजा चक्रवर्ती) आदि भी नमस्कार करते हैं। उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं।
धर्म भावमंगल है
इसके अतिरिक्त जो भी व्यक्ति अहिंसा, संयम और तपरूप उत्कृष्ट धर्ममंगल पर चले हैं, चल रहे हैं, यानी जिन्होंने धर्ममंगल को आत्मसात् कर लिया है, जीवन में रमा लिया है, धर्ममंगल को जीवन का स्वाभाविक अंग बना लिया है ऐसे मंगलमय महान् व्यक्ति या वीतरागता प्राप्त महापुरुष या वीतराग के पथ पर अहर्निश चलने वाले साधु-साध्वीगण (आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि) मंगलरूप है, उनका स्मरण भी मंगल है। जैसा कि मंगलपाठ में कहा गया है-
‘‘अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं।
साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।।’’
अर्थात्-अरिहंत मंगल हैं, सिद्ध मंगल हैं साधु मंगल हैं और केवलज्ञानी (वीतरागसर्वज्ञ) द्वारा प्रज्ञप्त (आत्म) धर्म मंगल है।
मंगल शब्द के विविध अर्थ और फलितार्थ :
ये चारों क्यों मंगल हैं? यह मंगल शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। मंगल शब्द का निर्वचन करते हुए आचार्य कहते हैं— ‘‘मां गालयति, भवादपनयतीति मंगलम्’ अथवा ममत्त्वं-अहंत्वं गलति येन तत् मंगलम्। पहले निर्वचन का अर्थ है-जो मुझे भव = संसार से दूर कर दे हटा दे, मेरा भवभ्रमण नष्ट कर दे, वह मंगल है। दूसरे निर्वचन का अर्थ है- जिससे ममत्व या अहंकार गल जाये-नष्ट हो जाये, वह मंगल है। अत: इसका फलितार्थ है, जो मेरे वासनामय (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि वासनामय बने हुए) स्वरूप को गाल दे-नष्ट कर दे, वह मंगल है।
विशुद्ध आत्मा ही वास्तव में महामंगल है, क्यों और कैसे?
मंगल शब्द का यह निर्वचन अन्त में हो आत्मा की ही पूर्ण रूप से विशुद्धि करने की ओर इंगित करता है। अर्थात् मंगलपाठ में उक्त मंगल-प्रबोध मंगलपाठ के श्रोता की आत्मा को विशुद्ध बनाकर स्वयं मंगलमय बनने के लिए है। इसलिए कहना चाहिए-विशुद्ध आत्मा ही स्वयं मंगल है, महामंगल है। धर्मरूप महामंगल को पाकर, अथवा धर्ममंगल को जीवन में रमाकर अरिहंतों और सिद्धों ने महामंगल की प्राप्ति की है। अत: महामंगल रूप इन चारों का स्वरूप समझकर मंगलपाठ श्रवण करके तथा मंगलपाठ में उक्त चारों महामंगलों का स्मरण करके-स्वरूप समझकर आत्मा को विशुद्ध तथा तदरूप मंगलमय बनाना है। अरिहन्तों और सिद्धों का महामंगलमय नाम-स्मरण करके उनका स्वरूप समझकर अन्त में तो आत्मा को अपने अरिहन्त स्वरूप तथा सिद्ध स्वरूप को प्रकट करना है, साधु भगवन्तों का मंगलमय नाम-स्मरण करके उनकी उपासना करके, उनसे आत्मा के मंगलस्वरूप को समझकर आत्मा में साधुत्व प्रगट करना है, तथा आत्म-धर्मरूप महामंगल को भलीभाँति समझकर अपने जीवन में प्रकट करना है। ऐसी स्थिति में मंगलपाठ-श्रवण का प्रयोजन तथा फलितार्थ यही निकलता है कि अरिहन्तादि—स्वरूप अपना विशुद्धात्मा ही मंगल है, आत्मा के निजी अनन्त गुणचतुष्टय का भण्डार ही महामंगल है।
मूल में तो मंगलपाठ-श्रवण का प्रयोजन यही है कि हमारी विशुद्ध आत्मा जो अनादिकाल से मोहनिद्रा में सोई हुई है, उसे जागृत करके उससे अनन्त चतुष्टय रूप विशुद्ध गुणों को प्रकट करके उसे ही महामंगल रूप बनाना है। यही कारण है कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र के बारहवें प्रकाश के अन्तिम श्लोक में बताया है कि ‘‘हे आत्मन्! तू देवी-देवों को खुश करने की बात छोड़ दे, तथा अरिहन्त—सिद्ध वीतराग—परमात्माओं को भी खुश करने या उन्हें रिझाने की अपेक्षा तू अपनी आत्मा को खुश कर अपने मन-बुद्धि-चित्त-हृदय को प्रसन्न कर-शुद्ध और निर्मल बना।’ दुख, अज्ञान और दुर्गति में पड़े हुए अपने आत्म भगवान् को तू मंगलपाठ-श्रवण करके जागृत कर इन दोषों और अशुद्धियों से आत्मा को बाहर निकाल, अपार आत्मानन्द में स्नान कर। अपनी अनन्त शक्तियों को प्रकट शक्तियों को प्रकट करने के लिए पुरुषार्थ कर।
मंगल शब्द के अन्य निर्वचन
इस दृष्टि से आचार्य हरिभद्र सूरि ने मंगल का निर्वचन किया है—
‘‘मंग्यतेश्धिगम्यते हितमनेनेति मंगलम्।’’ — जिससे हित की, आत्मकल्याण की प्राप्ति हो, वह मंगल है। मल्लधारी आचार्य हेमचन्द्र भी इसी तथ्य को दूसरे रूप में प्रगट करते हुए कहते हैं-‘मह्यन्ते पूज्यन्तेश्ने्नेति मंगलम्।’ जिसके द्वारा आत्मा पूज्य=विश्ववन्द्य होता है, वह मंगल है।
इस दृष्टि से जब हम मंगलपाठ में उक्त चार भावमंगलों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट समझ में आ जाता है, जिन महान् आत्माओं ने दोषों से रहित होकर सद्गुणों को अपने जीवन में अपनाया, अपनी आत्मा का हित या कल्याण साधा, वे भावमंगलरूप बन गये। साथ ही उसकी आत्मा परम विशुद्ध हो गई अथवा परम विशुद्धि के मार्ग पर कतिपय महान् आत्मा चले, अथवा उन मंगलमय बनने वालों के लिए जो केवलिप्ररूपित आत्मधर्म सम्बल बना, यानी सम्यक्-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपरूप जो आत्मधर्म सहायक और मार्गदर्शक बना, उस मंगलमार्ग पर चलने से वे महान् आत्माएँ पूजनीय-वंदनीय बनी, धर्म भी पूज्य बना। यही कारण है कि मंगलपाठ के श्रवण और स्मरण द्वारा श्रोता का जीवन मंगलमय बन सकता है और बन जाता है।
आचार्य सम्राट देवेन्द्र मुनि